नक्सलवाद को कुलचना होगा

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलवादियों ने चिंतलनार और टारमेटला गांव के बीच घने जंगलों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों की हत्या कर दी। यह अभी तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला है।
हमले के बाद पारम्परिक सरकारी कवायद शुरू हो गई। प्रधानमंत्राी ने गृहमंत्राी से बात की। गृहमंत्राी ने जिम्मेदार अधिकारियों को तलब किया। विपक्ष ने इसे गंभीर चिंता का विषय बताते हुए सरकार के साथ खड़े होने की बात कहीं। उम्मीद है कि थोड़े सोच-विचार और राजनैतिक गुणा-भाग के बाद संप्रग अध्यक्ष भी खेद प्रकट कर देंगी।
नक्सलियों ने यह आक्रमण उस समय किया है जबकि सरकारी विज्ञप्तियां बता रही थीं कि आॅपरेशन ग्रीन हंट के चलते नक्सलवादी हताश हो गए हैं, पीछे हट रहे हैं, उकने अधिकांश बड़े नेता या तो गिरफ्रतार कर लिए गए हैं या मारे जा चुके हैं।
स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि यह हमला न केवल सत्ता को सीधी चुनौती है बल्कि सशस्त्रा बलों द्वारा जारी खबरों के खोखलेपन और आॅपरेशन के दौरान भारी रणनीतिक चूक का दर्शन भी कराता है। सम्भवतः इसके पीछे नक्सलियों की काल्पनिक हताशा से उपजा अतिआत्मविश्वास और बंदूक के बल पर उन्हें चुटकियों में मसल देने की गलतपफहमी भी है।
पिछली आधी शताब्दी नक्सलियों के कहर की गवाह रही है। कभी इस तो कभी उस राजनैतिक दलों द्वारा इन नक्सली हत्यारों से परदे के पीछे से हाथ मिलाने और उसके बल पर सत्ता पर काबिज होने के खेल की भी। अपने निहित स्वार्थों के लिए राजनैतिक दलों ने इन अपराधियों को पाला-पोसा है।
नक्सलवादियों ने इन वर्षों में हजारों लोगों की हत्या की है। मरने वाले इन लोगों में अधिकांश वे ग्रामीण और वनवासी हैं जो दो जून की रोटी के लिए भी मजबूर हैं। सामंतों के खिलापफ बंदूकें उठाने वाले नक्सली निरीह लोगों पर कहर बरपाते हैं।
जंगलों में इस हिंसक अभियान में लगे इन नक्सलियों के वैचारिक समर्थन और उन्हें नायक बनाकर प्रस्तुत करने वाले बु(िजीवियों, पत्राकारों और गैर सरकारी संगठनों की एक पूरी पफौज है। सत्ता प्रतिष्ठानों में उनके हिमायती बैठे हैं। थियेटर, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सिनेमा जगत में उनके समर्थक भरे पड़े हैं। 
हिंसा को अच्छी और बुरी श्रेणी में नहीं बांटा जा सकता। नरोदा पाटिया और गुलमर्ग सोसायटी में हुई हिंसा पर बरसों से छाती कूट रहे सेकुलरों के मुंह से चितलनार और रानी बोधली नरसंहार पर बोल नहीं पफूटते। इसके विपरीत जो लोग नक्सली हिंसा या आतंकवाद की आलोचना करते हैं वे इन सेकुलरों के निशाने पर रहते हैं।
सरकार घने जगलों में चल रही भारत विरोधी इन गतिविधियों पर नियंत्राण की जिम्मेदारी से बचने और कड़ी कार्रवाई करने से बचने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाती रही है। इसी के चलते यह समस्या आज इतनी गंभीर हो गयी है कि भारत की केन्द्रीय सत्ता को नकारने की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
नक्सलवादी भले ही जंगलों में तैयार किए जाते हैं लेकिन उनको आधुनिक हथियार बाहर से ही मिलते हैं। अधिकांश भारत के बाहर से। विदेशों से आने वाली हथियारों और पैसों की इस खेप को सीमा पर ही रोकने अथवा कम से कम जंगलों तक उनके पहुंचने पर रोक लगाने का काम सरकार का है और गृह मंत्रालय इसके लिए सीधे जिम्मदार है।
जो राष्ट्रवादी संगठन इन शक्तियों और प्रवृत्तियों का विरोध करते हैं उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने ऐसी सभी राष्ट्रघातक प्रवृत्तियों का सतत् विरोध किया है। अपने दर्जनों कार्यकर्ताओं के बलिदान के बाद भी परिषद् ने संघर्ष जारी रखा है। आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल सहित देशभर के विद्यालयों, विश्वविद्यालय परिसरों में छाये नक्सली आतंक के खिलापफ परिषद् के कार्यकर्ता अपने प्राणों की परवाह किए बिना ताल ठोंक कर खड़े हैं। अन्य राष्ट्रवादी संगठनों के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने भी इन हुतात्माओं के बलिदान का स्मरण करते हुए यह रेखांकित करना आवश्यक है कि समय आ गया है जब नक्सलवाद को पूरी तरह कुचल दिया जाय। यदि अभी भी सरकार ने इनका सम्पूर्ण दमन नहीं किया तो यह देश की सम्प्रभुता को दांव पर लगाना ही कहा जायेगा। 
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलवादियों ने चिंतलनार और टारमेटला गांव के बीच घने जंगलों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों की हत्या कर दी। यह अभी तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला है।
हमले के बाद पारम्परिक सरकारी कवायद शुरू हो गई। प्रधानमंत्राी ने गृहमंत्राी से बात की। गृहमंत्राी ने जिम्मेदार अधिकारियों को तलब किया। विपक्ष ने इसे गंभीर चिंता का विषय बताते हुए सरकार के साथ खड़े होने की बात कहीं। उम्मीद है कि थोड़े सोच-विचार और राजनैतिक गुणा-भाग के बाद संप्रग अध्यक्ष भी खेद प्रकट कर देंगी।
नक्सलियों ने यह आक्रमण उस समय किया है जबकि सरकारी विज्ञप्तियां बता रही थीं कि आॅपरेशन ग्रीन हंट के चलते नक्सलवादी हताश हो गए हैं, पीछे हट रहे हैं, उकने अधिकांश बड़े नेता या तो गिरफ्रतार कर लिए गए हैं या मारे जा चुके हैं।
स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि यह हमला न केवल सत्ता को सीधी चुनौती है बल्कि सशस्त्रा बलों द्वारा जारी खबरों के खोखलेपन और आॅपरेशन के दौरान भारी रणनीतिक चूक का दर्शन भी कराता है। सम्भवतः इसके पीछे नक्सलियों की काल्पनिक हताशा से उपजा अतिआत्मविश्वास और बंदूक के बल पर उन्हें चुटकियों में मसल देने की गलतपफहमी भी है।
पिछली आधी शताब्दी नक्सलियों के कहर की गवाह रही है। कभी इस तो कभी उस राजनैतिक दलों द्वारा इन नक्सली हत्यारों से परदे के पीछे से हाथ मिलाने और उसके बल पर सत्ता पर काबिज होने के खेल की भी। अपने निहित स्वार्थों के लिए राजनैतिक दलों ने इन अपराधियों को पाला-पोसा है।
नक्सलवादियों ने इन वर्षों में हजारों लोगों की हत्या की है। मरने वाले इन लोगों में अधिकांश वे ग्रामीण और वनवासी हैं जो दो जून की रोटी के लिए भी मजबूर हैं। सामंतों के खिलापफ बंदूकें उठाने वाले नक्सली निरीह लोगों पर कहर बरपाते हैं।
जंगलों में इस हिंसक अभियान में लगे इन नक्सलियों के वैचारिक समर्थन और उन्हें नायक बनाकर प्रस्तुत करने वाले बु(िजीवियों, पत्राकारों और गैर सरकारी संगठनों की एक पूरी पफौज है। सत्ता प्रतिष्ठानों में उनके हिमायती बैठे हैं। थियेटर, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सिनेमा जगत में उनके समर्थक भरे पड़े हैं। 
हिंसा को अच्छी और बुरी श्रेणी में नहीं बांटा जा सकता। नरोदा पाटिया और गुलमर्ग सोसायटी में हुई हिंसा पर बरसों से छाती कूट रहे सेकुलरों के मुंह से चितलनार और रानी बोधली नरसंहार पर बोल नहीं पफूटते। इसके विपरीत जो लोग नक्सली हिंसा या आतंकवाद की आलोचना करते हैं वे इन सेकुलरों के निशाने पर रहते हैं।
सरकार घने जगलों में चल रही भारत विरोधी इन गतिविधियों पर नियंत्राण की जिम्मेदारी से बचने और कड़ी कार्रवाई करने से बचने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाती रही है। इसी के चलते यह समस्या आज इतनी गंभीर हो गयी है कि भारत की केन्द्रीय सत्ता को नकारने की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
नक्सलवादी भले ही जंगलों में तैयार किए जाते हैं लेकिन उनको आधुनिक हथियार बाहर से ही मिलते हैं। अधिकांश भारत के बाहर से। विदेशों से आने वाली हथियारों और पैसों की इस खेप को सीमा पर ही रोकने अथवा कम से कम जंगलों तक उनके पहुंचने पर रोक लगाने का काम सरकार का है और गृह मंत्रालय इसके लिए सीधे जिम्मदार है।
जो राष्ट्रवादी संगठन इन शक्तियों और प्रवृत्तियों का विरोध करते हैं उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने ऐसी सभी राष्ट्रघातक प्रवृत्तियों का सतत् विरोध किया है। अपने दर्जनों कार्यकर्ताओं के बलिदान के बाद भी परिषद् ने संघर्ष जारी रखा है। आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल सहित देशभर के विद्यालयों, विश्वविद्यालय परिसरों में छाये नक्सली आतंक के खिलापफ परिषद् के कार्यकर्ता अपने प्राणों की परवाह किए बिना ताल ठोंक कर खड़े हैं। अन्य राष्ट्रवादी संगठनों के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने भी इन हुतात्माओं के बलिदान का स्मरण करते हुए यह रेखांकित करना आवश्यक है कि समय आ गया है जब नक्सलवाद को पूरी तरह कुचल दिया जाय। यदि अभी भी सरकार ने इनका सम्पूर्ण दमन नहीं किया तो यह देश की सम्प्रभुता को दांव पर लगाना ही कहा जायेगा। 

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