विजय दिवस

16 दिसंबर, 1971 को भारत ने पाकिस्तान को हराकर इतिहास रचा था। पाकिस्तान के ९३ हजार सैनिकों ने इस युद्ध के बाद घुटने टेके थे।

1971 में बांग्लादेश की आज़ादी को लेकर भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के बीच हुई सीधी जंग में भारतीय जवानों ने बड़ी चतुराई और बहादुरी से दुश्मन के दांत खट्टे कर दिए थे। इस जंग के कई नायकों में से एक, जेएफआर जैकब उस लम्हे के भी गवाह बने थे जब जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाकिस्तान सेना के प्रमुख जनरल नियाजी और उनके हजारों फौजियों ने आत्मसमर्पण किया था। विजय दिवस की 39वीं बरसी (१६ दिसंबर) से प‍हले इस जंग में भारतीय सेनाओं की कमान संभालने वाले एक जांबांज की नज़र से भारत की इस ऐतिहासिक जीत को टटोलते हैं।

1969 में सेना प्रमुख सैम हॉरमुसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ ने जेएफआर जैकब को पूर्वी कमान प्रमुख बना दिया था। जैकब ने 1971की लड़ाई में अहम भूमिका निभाते हुए दुश्मनों को रणनीतिक मात दी थी।। जैकब के मुताबिक 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) में युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। जंग से आजिज आ चुके और बेहतर ज़िंदगी की तलाश में बांग्लादेश के शरणार्थी लाखों की संख्या में सीमा पार करके देश के पूर्वी हिस्सों में प्रवेश कर रहे थे। पूर्वी पाकिस्तान में लोग इस्लामी कानूनों के लागू होने और उर्दू के बतौर राष्ट्रीय भाषा बनाए जाने का विरोध कर रहे थे। इसलिए हालात ज़्यादा खतरनाक हो गए थे। पाकिस्तानी फौज को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने वाले जनरल (रिटायर्ड) जैकब फर्ज रफेल (जेएफआर) जैकब के मुताबिक भारत के तीखे हमलों से परेशान होकर पाकिस्तान सेना ने संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में युद्ध विराम की पेशकश की, जिसे भारतीय सेना ने अपनी चतुराई और पराक्रम से पाकिस्तान के पूर्वी कमान के 93,000 सैनिकों के सरेंडर में बदल दिया।

जैकब के मुताबिक नियाजी के पास ढाका में ही करीब 30हजार सैनिक थे, जबकि हमारे पास ३ हजार। जैकब के मुताबिक उसके पास कई हफ्तों तक लड़ाई लड़ने की क्षमता थी। जैकब के मुताबिक अगर नियाजी ने समर्पण करने की बजाय युद्ध लड़ता तो पोलिश रिजॉल्यूशन जिस पर संयुक्त राष्ट्र में बहस हो रही थी, वह लागू हो जाता और बांग्लादेश की आज़ादी का सपना अधूरा रह जाता। लेकिन वह समर्पण के लिए तैयार हो गया।

मुक्ति वाहिनी को दी मदद

पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बनाने में सबसे अहम भूमिका मुक्ति वाहिनी की रही। मुक्ति वाहिनी ने बांग्लादेश की आज़ादी के आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। भारत में पूर्वी पाकिस्तान से लगातार आ रहे शरणार्थियों की समस्या से निपटने के लिए भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी को मजबूत करने का निर्णय लिया। इस फैसले के तहत मुक्ति वाहिनी को हथियार दिए गए।

युद्ध का औपचारिक ऐलान

3 दिसंबर, 1971को भारत और चीन के बीच जंग का औपचारिक ऐलान कर दिया गया जब पाकिस्तान ने भारत के पश्चिमी छोर पर ११ एयर बेस पर हवाई हमला कर दिया। भारत पश्चिमी और पूर्वी छोर पर पाकिस्तान से जंग में उलझ गया। अमेरिका ने पाकिस्तान को चुनाभारत और अमेरिका के बीच युद्ध की शुरुआत के साथ ही दुनिया की बड़ी ताकतों के बीच बहस गर्म हो गई और खेमेबाजी शुरू हो गई। सोवियत संघ ( अब रूस) और अमेरिका ने अपने-अपने खेमे तय कर लिए। राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की अगुवाई में अमेरिका ने पाकिस्तान का चुनाव किया।

अमेरिका और रूस के कूदने से पहले ही पाक का सरेंडर

इससे पहले कि दो परमाणु ताकत संपन्न राष्ट्र किसी जंग में उलझते पाकिस्तान की पूर्वी विंग ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके साथ ही युद्ध खत्म हो गया और बांग्लादेश का उदय हुआ। हार से तिलमिलाए नियाजी ने कहा, जैकब ने मुझे ब्लैकमेल कियाहार से तिलमिलाए पाकिस्तान ने कुछ हफ्तों बाद चीफ जस्टिस हमीदुर रहमान को युद्ध जांच आयोग का प्रमुख बनाकर हार की वजह का पता लगाने का काम सौंपा गया। कमीशन ने जनरल नियाजी को तलब कर पूछा कि जब ढाका में उनके पास 26,400जवान थे, तब उन्होंने ऐसे शर्मनाक तरीके से क्यों समर्पण किया जबकि वहां पर सिर्फ कुछ हजार ही भारतीय फौज थी। जनरल नियाजी ने जवाब दिया, मुझे ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ा।

भारत की रणनीति
जेएफआर जैकब के मुताबिक 1971 की लड़ाई में पश्चिमी मोर्चे पर रक्षात्मक-आक्रामक और पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध की बेहद आक्रामक रणनीति बनी थी। बारिश रुकने तक बांग्लादेश पर हमला न करने की बात जनरल जैकब ने कही थी। इस बीच, जनरल ने युद्ध की सारी तैयारियां पूरी कर लीं। और जब युद्ध शुरू हुआ तो जनरल जैकब ने खुलना और चटगांव पर हमला बोलने के आदेश को नज़र अंदाज करते हुए ढाका पर फोकस करना उचित समझा। जैकब जब ढाका के पास पहुंचे तो उनके पास3 हजार जवानों की फौज थी, जबकि नियाजी के पास करीब 30 हजार फौजी थे। लेकिन नियाजी जानता था कि बंगाली लोग उसके खिलाफ हैं। नियाजी ने संयुक्त राष्ट्र के नियमों के तहत युद्ध विराम समझौता करने की पेशकश कर दी। 16 दिसंबर को जैकब बिल्कुल निहत्थे हाथों में सिर्फ सरेंडर के काग़ज़ लेकर नियाजी के हेडक्वॉर्टर पहुंच गए। सरेंडर के काग़ज़ जैकब ने खुद ड्राफ्ट किए थे, लेकिन इस पर आलाकमान से मंजूरी नहीं मिली थी। इस बीच राजधानी में मुक्ति वाहिनी और पाकिस्तानी सेना के बीच युद्ध जारी था।

'मैं तुम्हें 3० मिनट देता हूं'

भारत की ओर से पूर्वी कमान का नेतृत्व कर रहे जेएफआर जैकब ने नियाजी से कहा, 'मैं आपको यकीन दिलाता हुं कि आप अगर जनता के बीच आत्मसमर्पण करना चाहते हैं तो हम आपकी और आपके आदमियों की सुरक्षा की गारंटी लेते हैं। भारत सरकार ने इस बारे में वादा किया है और हम आपकी और आपके लोगों की सुरक्षा का भरोसा दिलाते हैं। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो हम आपकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं ले सकते हैं।'

जैकब याद करते हैं, 'नियाजी लगातार बात करता रहा और आखिर में मैंने कहा, 'नियाजी मैं तुम्हें इससे बेहतर डील नहीं दे सकता हूं। मैं तुम्हें 3० मिनट देता हूं। अगर तुम कोई फैसला नहीं कर पाए तो मैं हमले का आदेश दे दूंगा।' बाद में नियाजी के दफ्तर से जैकब लौट आए। नियाजी के पास दोबारा पहुंचे जैकब के शब्दों में, 'मैं नियाजी के पास टहलते हुए पहुंचा। मेज पर सरेंडर के काग़जात रखे हुए थे।' मैंने पूछा, 'जनरल क्या आप इसे मंजूर करते हैं? मैंने नियाजी से तीन बार पूछा। लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया।' इसके बाद पाकिस्तान सेना ने सरेंडर कर दिया।

93000  सैनिकों का सरेंडर
1971की लड़ाई में पाकिस्तानी सेना भारतीय फौजों के सामने सिर्फ 13 दिन ही टिक सकी। इतिहास की सबसे कम दिनों तक चलने वाली लड़ाइयों में से एक इस लड़ाई के बाद पाकिस्तान के करीब 93हजार सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया था। आधुनिक सैन्य काल में इस पैमाने पर किसी फौज के आत्मसमर्पण का यह पहला मामला था। 

नक्सलवाद को कुलचना होगा

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलवादियों ने चिंतलनार और टारमेटला गांव के बीच घने जंगलों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों की हत्या कर दी। यह अभी तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला है।
हमले के बाद पारम्परिक सरकारी कवायद शुरू हो गई। प्रधानमंत्राी ने गृहमंत्राी से बात की। गृहमंत्राी ने जिम्मेदार अधिकारियों को तलब किया। विपक्ष ने इसे गंभीर चिंता का विषय बताते हुए सरकार के साथ खड़े होने की बात कहीं। उम्मीद है कि थोड़े सोच-विचार और राजनैतिक गुणा-भाग के बाद संप्रग अध्यक्ष भी खेद प्रकट कर देंगी।
नक्सलियों ने यह आक्रमण उस समय किया है जबकि सरकारी विज्ञप्तियां बता रही थीं कि आॅपरेशन ग्रीन हंट के चलते नक्सलवादी हताश हो गए हैं, पीछे हट रहे हैं, उकने अधिकांश बड़े नेता या तो गिरफ्रतार कर लिए गए हैं या मारे जा चुके हैं।
स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि यह हमला न केवल सत्ता को सीधी चुनौती है बल्कि सशस्त्रा बलों द्वारा जारी खबरों के खोखलेपन और आॅपरेशन के दौरान भारी रणनीतिक चूक का दर्शन भी कराता है। सम्भवतः इसके पीछे नक्सलियों की काल्पनिक हताशा से उपजा अतिआत्मविश्वास और बंदूक के बल पर उन्हें चुटकियों में मसल देने की गलतपफहमी भी है।
पिछली आधी शताब्दी नक्सलियों के कहर की गवाह रही है। कभी इस तो कभी उस राजनैतिक दलों द्वारा इन नक्सली हत्यारों से परदे के पीछे से हाथ मिलाने और उसके बल पर सत्ता पर काबिज होने के खेल की भी। अपने निहित स्वार्थों के लिए राजनैतिक दलों ने इन अपराधियों को पाला-पोसा है।
नक्सलवादियों ने इन वर्षों में हजारों लोगों की हत्या की है। मरने वाले इन लोगों में अधिकांश वे ग्रामीण और वनवासी हैं जो दो जून की रोटी के लिए भी मजबूर हैं। सामंतों के खिलापफ बंदूकें उठाने वाले नक्सली निरीह लोगों पर कहर बरपाते हैं।
जंगलों में इस हिंसक अभियान में लगे इन नक्सलियों के वैचारिक समर्थन और उन्हें नायक बनाकर प्रस्तुत करने वाले बु(िजीवियों, पत्राकारों और गैर सरकारी संगठनों की एक पूरी पफौज है। सत्ता प्रतिष्ठानों में उनके हिमायती बैठे हैं। थियेटर, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सिनेमा जगत में उनके समर्थक भरे पड़े हैं। 
हिंसा को अच्छी और बुरी श्रेणी में नहीं बांटा जा सकता। नरोदा पाटिया और गुलमर्ग सोसायटी में हुई हिंसा पर बरसों से छाती कूट रहे सेकुलरों के मुंह से चितलनार और रानी बोधली नरसंहार पर बोल नहीं पफूटते। इसके विपरीत जो लोग नक्सली हिंसा या आतंकवाद की आलोचना करते हैं वे इन सेकुलरों के निशाने पर रहते हैं।
सरकार घने जगलों में चल रही भारत विरोधी इन गतिविधियों पर नियंत्राण की जिम्मेदारी से बचने और कड़ी कार्रवाई करने से बचने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाती रही है। इसी के चलते यह समस्या आज इतनी गंभीर हो गयी है कि भारत की केन्द्रीय सत्ता को नकारने की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
नक्सलवादी भले ही जंगलों में तैयार किए जाते हैं लेकिन उनको आधुनिक हथियार बाहर से ही मिलते हैं। अधिकांश भारत के बाहर से। विदेशों से आने वाली हथियारों और पैसों की इस खेप को सीमा पर ही रोकने अथवा कम से कम जंगलों तक उनके पहुंचने पर रोक लगाने का काम सरकार का है और गृह मंत्रालय इसके लिए सीधे जिम्मदार है।
जो राष्ट्रवादी संगठन इन शक्तियों और प्रवृत्तियों का विरोध करते हैं उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने ऐसी सभी राष्ट्रघातक प्रवृत्तियों का सतत् विरोध किया है। अपने दर्जनों कार्यकर्ताओं के बलिदान के बाद भी परिषद् ने संघर्ष जारी रखा है। आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल सहित देशभर के विद्यालयों, विश्वविद्यालय परिसरों में छाये नक्सली आतंक के खिलापफ परिषद् के कार्यकर्ता अपने प्राणों की परवाह किए बिना ताल ठोंक कर खड़े हैं। अन्य राष्ट्रवादी संगठनों के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने भी इन हुतात्माओं के बलिदान का स्मरण करते हुए यह रेखांकित करना आवश्यक है कि समय आ गया है जब नक्सलवाद को पूरी तरह कुचल दिया जाय। यदि अभी भी सरकार ने इनका सम्पूर्ण दमन नहीं किया तो यह देश की सम्प्रभुता को दांव पर लगाना ही कहा जायेगा। 
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलवादियों ने चिंतलनार और टारमेटला गांव के बीच घने जंगलों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों की हत्या कर दी। यह अभी तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला है।
हमले के बाद पारम्परिक सरकारी कवायद शुरू हो गई। प्रधानमंत्राी ने गृहमंत्राी से बात की। गृहमंत्राी ने जिम्मेदार अधिकारियों को तलब किया। विपक्ष ने इसे गंभीर चिंता का विषय बताते हुए सरकार के साथ खड़े होने की बात कहीं। उम्मीद है कि थोड़े सोच-विचार और राजनैतिक गुणा-भाग के बाद संप्रग अध्यक्ष भी खेद प्रकट कर देंगी।
नक्सलियों ने यह आक्रमण उस समय किया है जबकि सरकारी विज्ञप्तियां बता रही थीं कि आॅपरेशन ग्रीन हंट के चलते नक्सलवादी हताश हो गए हैं, पीछे हट रहे हैं, उकने अधिकांश बड़े नेता या तो गिरफ्रतार कर लिए गए हैं या मारे जा चुके हैं।
स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि यह हमला न केवल सत्ता को सीधी चुनौती है बल्कि सशस्त्रा बलों द्वारा जारी खबरों के खोखलेपन और आॅपरेशन के दौरान भारी रणनीतिक चूक का दर्शन भी कराता है। सम्भवतः इसके पीछे नक्सलियों की काल्पनिक हताशा से उपजा अतिआत्मविश्वास और बंदूक के बल पर उन्हें चुटकियों में मसल देने की गलतपफहमी भी है।
पिछली आधी शताब्दी नक्सलियों के कहर की गवाह रही है। कभी इस तो कभी उस राजनैतिक दलों द्वारा इन नक्सली हत्यारों से परदे के पीछे से हाथ मिलाने और उसके बल पर सत्ता पर काबिज होने के खेल की भी। अपने निहित स्वार्थों के लिए राजनैतिक दलों ने इन अपराधियों को पाला-पोसा है।
नक्सलवादियों ने इन वर्षों में हजारों लोगों की हत्या की है। मरने वाले इन लोगों में अधिकांश वे ग्रामीण और वनवासी हैं जो दो जून की रोटी के लिए भी मजबूर हैं। सामंतों के खिलापफ बंदूकें उठाने वाले नक्सली निरीह लोगों पर कहर बरपाते हैं।
जंगलों में इस हिंसक अभियान में लगे इन नक्सलियों के वैचारिक समर्थन और उन्हें नायक बनाकर प्रस्तुत करने वाले बु(िजीवियों, पत्राकारों और गैर सरकारी संगठनों की एक पूरी पफौज है। सत्ता प्रतिष्ठानों में उनके हिमायती बैठे हैं। थियेटर, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सिनेमा जगत में उनके समर्थक भरे पड़े हैं। 
हिंसा को अच्छी और बुरी श्रेणी में नहीं बांटा जा सकता। नरोदा पाटिया और गुलमर्ग सोसायटी में हुई हिंसा पर बरसों से छाती कूट रहे सेकुलरों के मुंह से चितलनार और रानी बोधली नरसंहार पर बोल नहीं पफूटते। इसके विपरीत जो लोग नक्सली हिंसा या आतंकवाद की आलोचना करते हैं वे इन सेकुलरों के निशाने पर रहते हैं।
सरकार घने जगलों में चल रही भारत विरोधी इन गतिविधियों पर नियंत्राण की जिम्मेदारी से बचने और कड़ी कार्रवाई करने से बचने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाती रही है। इसी के चलते यह समस्या आज इतनी गंभीर हो गयी है कि भारत की केन्द्रीय सत्ता को नकारने की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
नक्सलवादी भले ही जंगलों में तैयार किए जाते हैं लेकिन उनको आधुनिक हथियार बाहर से ही मिलते हैं। अधिकांश भारत के बाहर से। विदेशों से आने वाली हथियारों और पैसों की इस खेप को सीमा पर ही रोकने अथवा कम से कम जंगलों तक उनके पहुंचने पर रोक लगाने का काम सरकार का है और गृह मंत्रालय इसके लिए सीधे जिम्मदार है।
जो राष्ट्रवादी संगठन इन शक्तियों और प्रवृत्तियों का विरोध करते हैं उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने ऐसी सभी राष्ट्रघातक प्रवृत्तियों का सतत् विरोध किया है। अपने दर्जनों कार्यकर्ताओं के बलिदान के बाद भी परिषद् ने संघर्ष जारी रखा है। आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल सहित देशभर के विद्यालयों, विश्वविद्यालय परिसरों में छाये नक्सली आतंक के खिलापफ परिषद् के कार्यकर्ता अपने प्राणों की परवाह किए बिना ताल ठोंक कर खड़े हैं। अन्य राष्ट्रवादी संगठनों के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने भी इन हुतात्माओं के बलिदान का स्मरण करते हुए यह रेखांकित करना आवश्यक है कि समय आ गया है जब नक्सलवाद को पूरी तरह कुचल दिया जाय। यदि अभी भी सरकार ने इनका सम्पूर्ण दमन नहीं किया तो यह देश की सम्प्रभुता को दांव पर लगाना ही कहा जायेगा। 

सत्व के प्रकाशतत्व का विकास शिक्षा का ध्येय

वर्तमान शिक्षण में बालकों के मस्तिष्क में ठूंस-ठूंसकर भरी गई जानकारियों को तीन घंटे में उत्तरपुस्तिका में उगल देना होता है। जितनी अधिक जानकारी विद्यार्थी दे सकता है, उतना ही उसे बु(िमान माना जाता है। श्रीअरविंद की दृष्टि में यह प(ति अयोग्य है। इससे बालकों पर अत्याचार होता है। उसकी प्रवृत्ति के विरू( जाने का दबाव डाला जाता है। हम बालकों के उद्दाम और उत्कट आवेगों पर जड़ नियम लादकर उसके स्वभाविक विकास को रोक देते हैं। इसके परिणाम से उसकी शक्तियां कुंठित हो जाती हैं, उसके कोमल मस्तिष्क पर याद रखने का भारी बोझ पड़ जाता है। बाद में बड़ा होने पर बालकों की स्मरणशक्ति मंद हो जाती है। इस कारण कई बार ऐसा भी होता है कि प्रााथमिक शाला में पहले नम्बर पर आनेवाला बालक आगे जाकर एकदम सामान्य श्रेणी में आ जाता है।
बालकों को जबरदस्ती, मजबूर करके पूरे समय पढ़ने के लिए बैठाया जाता है जिससे उन्हें पढ़ने में रूचि नहीं होती, उत्साह नहीं होता। वे सब रट डालते हैं, इससे उनकी समझने की शक्ति विकसित नहीं होती है। ज्ञान के प्रति उनमें रुचि पैदा नहीं होती है। जिज्ञासा वृत्ति मंद हो जाती है। उनकी पढ़ाई यंत्रावत और जड़ बन जाती है। जिस कारण उनकी चेतना का विकास नहीं होता है।  जाती जानकारियों को नन्हे से मस्तिष्क में संग्रह करने के लिए बालक की बौ(िक मेहनत बढ़ती जाती है। अभी तो उसके स्थूल मस्तिष्क और मन का पूरा विकास भी नहीं हुआ होता है। और उसे कितना अधिक रट-रटकर याद रखना पड़ता है। इससे उसके मन पर भी भारी दबाव पड़ता है। इसलिए पढ़ना उसे अच्छा नहीं लगता। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैंः- ‘तुम्हारे मस्तिष्क में ठूंसी और जीवन भर अनपची रह जाने वाली और त्रासदायी जानकारी का संग्रह शिक्षा नहीं है। जीवन का निर्माण करें, मनुष्य को बलवान बनाएं, उसके चरित्रा का विकास करें, ऐसे पठन की आवश्यकता है।’ वे आगे कहते हैं, ‘शिक्षा का उद्देश्य केवल मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाना ही हो सकता है। मानव के उसके विकास के पथ पर ले जाना ही शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है।’
श्रीअरविन्द भी शिक्षा के ध्येय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं,‘शिक्षा का मुख्य ध्येय विकसित होती आत्मा के अन्दर जो कुछ उत्तम है उसे प्रकट करके, उसका उदात्त उपयोग हो, उसके लिए उसे पूर्ण बनाना है।’ पृथ्वी पर मनुष्य देह धरण करके आने के पीछे आत्मा का ध्येय विकास करना ही होता है। अनेक जन्मों तक विकास करते-करते आत्मा अंत में अपने मूल स्रोत परमात्मा को मिल जाती है। इसलिए विकास ही जीवन का मुख्य हेतु है और यही शिक्षा का भी हेतु है। मनुष्य के अंदर अनेक सुषुप्त शक्तियां रहती हैं। इन शक्तियों को जागृत करना, विकसित करना और मनुष्य को श्रेष्ठ मनुष्य बनाना, यही सच्ची शिक्षा है।
इस शिक्षण में कहीं बाहर से ज्ञान को लादना नहीं है, क्योंकि ज्ञान तो मनुष्य की आत्मा के अंदर ही पड़ा है। शिक्षक को तो केवल उसे जागृत करने का कार्य करना है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘मनुष्य में पूर्व में स्थित पूर्णता का प्रकटीकरण अर्थात् शिक्षा।’ जो ज्ञान मनुष्य के अंदर ही स्थित है तो उसे पिफर शिक्षा द्वारा क्या सिखा सकते हैं? तब पिफर शिक्षण का कार्य क्या? शिक्षण का कार्य है- विद्यार्थी के अन्दर स्थित उदात्त तत्वों के प्रकट होने और विकास के लिए सामग्री उपलब्ध् कराने के लिए योग्य वातावरण तैयार करना। इस संदर्भ में श्री अरविंद कहते हैं, ‘विद्यार्थी के ज्ञान और चिंतन का महल निर्माण करने वाली वस्तुएं अलग ही हैं और वे हैं स्मृति, निर्णय शक्ति, कल्पना, तत्वदृष्टि और तर्कबु(ि। इन सब बु(ि के सर्जकतत्वों को सक्रिय करने के सामग्री उपलब्ध् कराना शिक्षा का मुख्य कार्य है।’ यह सर्जकतत्व सभी बालकों में सम्पूर्ण प्रकट नहीं होते। उसके पीछे कारण है बालकांे की प्रकृत्ति और उन्हें मिला वातावरण। बालकांे में तमस होता है, इससे उनमें आलस, प्रमाद औरा शिथिलता आती है। उनका विकास मंद हो जाता है। उन्हें पढ़ना अच्छा नहीं लगता, विरक्ति होती है, थकाने लगती है। नहीं पढ़ने के अनेक बहाने वे ढूंढ़ लेते हैं। पर यह बस उनकी प्रकृति में स्थित तमोगुण के कारण हैं। उनमें रजोगुण भी होता है। यदि रजस अध्कि प्रमाण मंे हो तो उनमें ईष्र्या, आवेग, लोभ, मोह, क्रोध् आदि वृत्तियां अध्कि होती हैं। इन वृत्तियों के कारण उनके अन्दर का ज्ञान प्रकट नहीं होता। यदि बालक की प्रकृति में सत्वगुण अध्कि हो तो उनमें स्थित ज्ञान अपने आप जागृत होता है। सत्वगुण स्वयं ही प्रकाश बनकर ज्ञान चक्षुओं को खोल देता है। ज्ञान चक्षु खुलने से बालक को सब कुछ सहज रूप से समझ में आने लगता हैै।
हमारे )षि-मुनियों को इन तीन गुणवाली मानव प्रकृति का गहरा ज्ञान था। अतः उन्होंने शिक्षा का मुख्य कार्य तमस् का विसर्जन, रजस का नियंत्राण और सत्य का उद्घाटन माना था। गुरु शिष्यों को इस प्रकार शिक्षा देते थे कि यह प्रक्रिया शिष्य में अपने-आप होने लगती थी। सत्वगुण का उदय होते ही शिष्य अपने अन्दर से ही प्रकाश मिलने से ज्ञान प्राप्त कर सकते थे।
श्रीअरविन्द कहते हैं, ‘जब मनुष्य में सत्व के प्रकाशतत्व का विकास उच्चकोटि में पहंुचता है, तब उसे सामान्य रूप से या अध्कितर बाहर के साध्नों की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसा व्यक्ति किसी शिक्षक की, पाठ्यपुस्तक, व्याकरण या शब्दकोष की सहायता लिये बगैर विषय को पूरी तरह या अध्किांश रूप से अपने अंदर ही जान सकता है।’ विद्यार्थियों को इस स्तर पर लाने का ध्येय शिक्षा का है।

Contextualizing Student Movement in National Democratic Culture And Politics

A pervading sense of suspicion and doubt is evident in the society when it comes to discuss role of student movement in the country. Students are generally linked to various problems that persist in the society - the problems related to unemployment, education, terrorism, crimes, drugs etc. Are generally attributed to youth domain. Student movement is seen as something associated with agitations resulting in public disorder, lock out, bandh, collapse of law and order and anarchy. There are little efforts to understand the importance of student activism, its constructive role in the society and the need of making students the torchbearers of youth movement in the country. The mindset responsible for such an approach is that students are generally viewed and projected as problem; they are rarely seen as the solution for the different ills afflicting the society. The political parties in particular and society at large approach the youth with patrimonial attitude ‘promising’ to resolve their problems rather than seeking to mobilize students for the solutions that society urgently needs. It is therefore little encouragement is given to student activism by the establishment and the society. While the society is yet to shed its colonial hangover, the system needs to democratize itself by resolutely snapping its ties from colonial legacy. It is yet to be accepted that student activism strengthens the democratic process and consequently keeps the politics on the desired trajectory.
Student Movement: Global Scenario
Student movement may be attributed to student activism leading to youth intervention in various forms in the society. Student Activism which is considered to be at the core of youth movement has been the motivating factor behind many of the movements across the world. The advent of new nation-states in Europe on the foundation of modern democracies saw the shift in youth activities to the university campuses resulting in student movements influencing the political course of different nations in the west. In England student activism dates back to the1880s when students were allowed to form their unions as representative organizations culminating into the formation of apex student body known as National Union of Students (NUS) in 1921. Although NUS was mandated to keep itself out of politics, in the course of time it engaged itself with the issues related to Racism and Vietnam War. The student activism acquired the shape of a movement in 1960s when a student rally of 1, 00,000 was held which was followed by a protest of up to 80,000 strong in Grovesnor square, anti-racist protests and occupations in Newcastle, the breaking down of riot control gates and forced closure of the London School of Economics in 1870s. It is important to note the highly democratic character of British student movement which signifies the fact that most British students had faith in the democratic system and the authorities reciprocated by not dealing the movements with heavy hand in authoritarian manner which is otherwise evident elsewhere.
Student leaders exercised considerable impact on the shaping of public discourses in France. The most noticeable event in the history of student movement is the student protest in Sorbonne in Paris in 1968 when the University of Paris at Nanterre was closed due to problems between the students and the administration. In protest of the closure and the expulsion of Nanterre students, students of the Sorbonne in Paris began their own demonstration resulting in a nation-wide insurrection during which a variety of groups, including communists, Anarchists and right-wing libertarian activists, used the tension to advocate their own causes. It set in motion a chain of such protest across different countries including Germany, Spain and Mexico against authoritarianism and anti-democratic moves of the concerned governments.
In China student movement has played significant roles at almost every crucial juncture of Chinese history. Intense nationalistic feeling and sense of responsibility have been the hallmark of student movement in China. The birth of Chinese communism is attributed to May Fourth Revolution in which around 3,000 students gathered at Tiananmen Square against Kuomintang policy of Americanism. But the irony is that pro-Democracy movement in 1989 led by the students at the Tiananmen Square protests ended in a abrutal government crackdown resulting in severe repression and massacre of numerous student activists. June Fourth Massacre or 89 Pro-democracy Movement as it is generally called is one the most glorious student resistance movements known to the world history. Thousands of students gatheredAt Tiananmen Square demanding a democratic system and end of authoritarian communist rule. The communist government of China responded with coercive measure sending army and tanks to crush the movement with heavy hand. In the resultant massacre around 10,000 students have been reported to be killed.
Initially in 1930s student movement in United States engaged itself with attempts to change the american educational system and fight racial discrimination. In 1960s schools were targeted as social agents by Students for a Democratic Society (SDS) and witnessed the formation of the Student Nonviolent Coordinating Committee, which fought against racism and for integration of public schools across the US. The students also protested against American invasion of Combodia in 1970. In 1980s and 1990s the American society increasingly saw “service” as the focal point of student movement and campaigns to include work for funding of public schools, against increased tuitions at colleges or the use of sweatshop labor in manufacturing school apparel, for increased student voice throughout education planning, delivery, and policy-making (e.g. The Roosevelt Institution), and to raise national and local awareness of the humanitarian consequences of the Darfur Conflict. The student movement has also been showing increasing interests in the issues concerning global warming and anti-war activism.
It may be noted that encouraging student movement is implicit in any democratic system which seeks to ensure maximum participation of its constituents. A democratic student movement not only disciplines the youth force but also seeks to channelise them in right direction and in the process rescue the students from the clutches of misguided elements. The experience so far point to the fact that only anti-democratic forces consider student movement a threat to the establishment and choose to check its progress. Chinese repression of student movement at Tiananmen Square is a case in point.

Student Movement in India: Democratic Political Culture
The legacy of Indian national movement is considered to be at the core of the values upheld as guiding principle of the student movement in the country. The lofty ideals of the freedom struggle motivated and groomed the young leadership of the country. The student movement may be given credit for the emerging democratic mindset of the younger section of the society. It cannot now easily buy rhetoric built around cults of personality and dynasties. A democratic youth is essentially non-conformist whose energy needs to be usefully diverted to constructive political channels through organizational mechanism and appropriate ideological grooming for promoting the interests of the nation. The entire JP movement prior to the imposition of emergency was in fact a youth movement triggered by the Nav-Nirman Andolan in Gujarat and carried forward by ABVP throughout the country under the leadership of Loknayak Jayaprakash Narayan. The Ram Janamabhoomi movement saw the youth mobilization at its best relegating the forces opposed to the movement to the background. The current saga of success of India’s increasing dominance over knowledge capital throughout the world is being written by the youth.
In the recent years there has been remarkable achievements by youth in different fields but in politics the nation is witness to growing void vis-à-vis youth leadership. It seems that there is an increasing disconnect between the student movement and larger political process in the country. Lack of student interest in the democratic process is a phenomenon set in motion by the disenchantment of the student from the politics. Those who claim youth participation through cosmetic representation apparently lack appropriate understanding of the urge which motivates today’s students. The urge to see India get its rightful place in the comity of nations and its emergence as a developed, self-reliant, united and strong world power in every respect is at core of the aspirations nurtured by democratic and nationalist student movement. A student brimming with self-respect, self-confidence and having faith in democracy today aspires to build such an India. Any political party representing a culture of sycophancy and family rule cannot attract youth possessed of such virtues. The main problem between the real student movement and the political culture of the country may be portrayed as crisis between “idealism” and “realism” wherein the ‘compulsions’ of realpolitics are cited as reasons for having failed in promoting the value system which student movement espouses in its attempt to build a better society and a strong and prosperous nation.
One special feature of the politics today is the attempts being made by different political parties to fascinate youth to their side. The increasing population of young voters makes it incumbent upon political parties to devise means to garner the support of this valuable section of the electorate. Different political parties are trying to project themselves as having promoted the ‘real’ youth leadership in the country and thereby claiming to be their benefactor and protector of the best interests of the younger electorate. In such a cosmetic make over most of the political parties have embarked upon different schemes which only furthers the “disconnect” that they enjoy with the youth. Such exercise is symptomatic of the rot that has crept into the national political culture. It establishes the fact that most of the political parties in India have no mechanism to attract younger people; it has no programme to involve youth and no ideology or leadership to inspire and channelise the youth power. Current trend of youth recruitment through interviews (as devised by one of the major political parties) not only exposes the inherent organizational weakness but it is one of the biggest mockeries of democracy in the recent past. It looks as if the political parties are not attracting the youth to its organization as dedicated activists but recruiting henchmen to do at its bidding at a price.

Lack of dynamic leadership in politics is generally attributed to youth apathy towards politics. It is being said that students are getting more career oriented and less inclined to the commitment that the rough and tumble of political life demands. But the fact remains that the political culture of the country is not in tune with the urge with which the youth of today stands inspired. Therefore it remains somewhat difficult for the political parties to present a real and genuine youth leadership despite having constituted separate department of youths within their party fold. Whatever youth leadership these political parties have today generated mainly owes it to dynastic politics and not to the stated aims of grooming real and dynamic young leadership. The prevailing political culture fails to attract talented youths thus yielding the available space (if left unoccupied by those connected to lineage and dynasty) to unwanted, retrograde, sycophant and anti-social elements in the name of youth representation. Such elements fail to give genuine leadership to the society and regale in perpetrating corruption and status-quoism. That is why while we witness brilliant achievements in other sectors, politics continues to score downswing with politicians fast losing ground in public standing.

Student MovementAn Essential Component of Democratic System
Indian society is yet to fully recognize the importance of student activism in a democratic set up. We tend to forget that we have embraced a democratic system which necessitates efforts towards optimal participation of the citizens in democratic process. A democratic system is not limited to elections alone but it functions on the basis of a democratic culture with the establishment promoting and nurturing the concept of democratization of the society. India is not only a society which is getting younger by every passing day, but it has also given voting rights to its youths as early an age as 18. Student activism seeking to build a student movement in the country is certainly the most desirable component of a democratic system which may further enthuse the youth of the country with the character and quality needed to cleanse the political system and bureaucracy of its various ills. A vibrant and dynamic student movement may be considered an essential component of the democratic system.
In the current scenario, mechanism to groom youth leadership in the country is urgently needed. There is a need to nurture the democratic culture to attract upright youth by instilling a sense of nationalism filled with the vision of a vibrant and prosperous India. Unlike cosmetic attempts to create hordes of sycophants, the focus on self-respecting youth power should be emphasised. While communism misleads the non-conforming youth towards naxalism by instigating them to rebel violently and mindlessly, efforts should be in transforming the non-conforming urge of the youth towards constructive activities channelising the youth power in the national interest. Rather than approaching the youth with “patrimonial” approach the youth today needs opportunity – which we may call “Democratic Opportunity”. The system today rarely provides the youth with the “Democratic Opportunity” as an inbuilt organizational mechanism so as to connect the student movement to youth leadership and thereby providing opportunities for upcoming national leadership fresh with new ideas and vigour. Student movement is not a problem, it is the solution to the problems facing the society as it is committed to gel experience with energy and wisdom with dynamism. The ideology that motivates youth, the mechanisms that provide “Democratic Opportunity” and the examples that guide and inspire are the need of the day in the interest of democratic political culture of the nation.

छात्र आंदोलनों की प्रासांगिकता



किसी भी देश का विकास तभी संभव है जब वहां की जनता जागरूक हो। बात अगर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की हो, तो यह और भी जरूरी हो जाता है। लेकिन, यहां ऐसा नहीं हो पा रहा क्योंकि आज भी देश में अशिक्षा और गरीबी व्याप्त है। ऐसे में, व्यापक स्तर पर यदि कोई जागरूकता की लहर पैदा कर सकता है तो वह कालेजों-विश्वविद्यालयों में पढ़ रहा युवा वर्ग है, जो न केवल शिक्षा के इन मठों में मिल रहे ज्ञान को आत्मसात कर सकता है, बल्कि लोगों के बीच भी इसका प्रचार-प्रसार कर सकता है, बशर्ते वह खुद कभी राह न भटके। यहां यह कहना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि पिछले कुछ दशकांे में छात्र राजनीति ने न केवल कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, बल्कि छात्र राजनीति के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायलय की दखल और लिंगदोह समिति के गठन व सिफारिशें आने के बाद, आज स्वयं छात्र राजनीति को ही संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। ऐसे मंे, कटघरे में खड़ी छात्र राजनीति का विश्लेषण निश्चय ही आवश्यक हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि यहां हम कोई नई बात कर रहे हैं, छात्र राजनीति के जरिये आम लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने की परंपरा हमारे यहां आजादी से पहले की है। छात्रों में राजनैतिक समझ ही थी, जिसने आजादी के यज्ञ में होम का काम किया। डोरेजियो से लेकर भगत सिंह, सभी कहीं न कहीं इसी कौम का हिस्सा रहे हैं। आजादी मिलने के बाद भी यह लौ थमी न थी और जब कभी भी देश में किसी भी तरह की उथल-पुथल मची, छात्र राजनीति से जन्मे आंदोलन उन्हें शांत करने में अहम भूमिका निभाते नजर आए। आजादी की अलख जगाने से लेकर, आदर्शवाद और आंदोलनों में पलती राजनीति ने देश को कई राजनेता दिए। वह चाहे सति के विरु( व विधवा विवाह के समर्थन में ईश्वर चंद विद्यासागर का 17वीं सदी का आंदोलन रहा हो, या 1882 में शुरू हुआ, थियोसोपिफकल सोसायटी का वसुधैव कुटुंबकम अभियान, इन सबसे लेकर विदेशी बायकाट, स्वदेशी और गांधी के तमाम अभियानों की सपफलता निश्चित तौर पर छात्रा सहयोग से ही संभव हो पाई। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलनों में हजारों-लाखों छात्रांे ने देश की आजादी को ही अपना भविष्य समझा और अपने इसी विश्वास के दम पर आजादी ले भी ली।
स्वतंत्रता उपरांत भी जब-तब, देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने का दमखम रखने वाले छात्र जब राजनीति में आए तो राज्य व केंद्र सरकारों को भी अपनी नीतियों में बदलाव करने पड़े। वर्ष 1959 में, लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों ने जब भ्रष्टाचार और जातिवाद के खिलापफ मोर्चा उठाया तो परिणामस्वरूप, राज्य सरकार को इस संबंध में जांच समिति बैठानी पड़ी। सन् 1968-71 के दौरान, पश्चिम बंगाल के छात्रों का अभियान लगातार जारी रहा। इस अभियान के जरिये न केवल पाकिस्तानी जेल से शेख मुजीबुर्रहमान की रिहाई की मांग उठती रही, बल्कि स्वतंत्रा बंगलादेश के मुद्दे पर विश्व भर के बु(िजीवी और आमजन इन छात्रों के साथ खड़े नजर आए। इसी तरह, देश में आपातकाल के दौरान, छात्रा नेताओं ने तत्कालीन सरकार के तानाशाही रवैये का जो मुंहतोड़ जवाब दिया, उसे पिफर से बयां करने की शायद ही कोई आवश्यकता हो। जय प्रकाश नारायण के साथ-साथ उस पीढ़ी के तमाम युवा नेता उस समय के सरोकारों के प्रति कितने गंभीर और निष्ठावान थे, इसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। 
इस दौर ने देश को तमाम ऐसे नेता दिये, जो देश के प्रति निष्ठावान, अपने काम के प्रति ईमानदार, समाज के प्रति जिम्मेदार और चुनौतियों के प्रति जुझारू तो थे ही, छात्र राजनीति ने उन्हें अनोखी समझ, दूरदर्शिता और परिपक्वता भी दी थी। स्वर्गीय चंद्रशेखर, स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे तमाम नेता इसी कौम का हिस्सा रहे। वर्तमान में, अरुण जेटली भी छात्रा राजनीति और आपातकालीन आंदोलन से ही मुख्य राजनीति में शामिल होते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि छात्र राजनीति ने हमें ऐसे नेता दिये हैं, जिनकी दूरदृष्टि के सुखद परिणाम हमें आज के विकास के रूप में दिखाई दे रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ दो-एक दशकों में छात्र राजनीति एक नया मोड़ लेती दिखाई दे रही और दुर्भाग्यवश ये नया बदलाव बहुत सकारात्मक नहीं दिख रहा। 
देश के राजनैतिक पटल पर देखें तो, संसद में बैठे अशिक्षित नेताओं की करनी और उनके गलत नतीजों का लाख रोना रोने के बावजूद, हमें शिक्षित नेताओं का अभाव ही हाथ लग रहा है। वजह साफ है, इक्के-दुक्के शिक्षितों के अलावा, पढ़े-लिखे युवक राजनीति को कोयले की दलाली ही समझते हैं और इसमें शामिल होने से कतराते हैं। यहां तक कि वे छात्र राजनीति में शामिल होने से भी डरते हैं। अफसोस इस बात का भी है कि आज का परिवेश उनकी इस समझ को ही प्रगाढ़ कर रहा है। कालेजों में पढ़ रहे जो युवा छात्र राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं, उनमें से ज्यादातर सत्ता की चमक और छोटी उम्र में रुतबा व अधिक से अधिक धन कमाने के शाॅर्टकट के रूप में इसे देख रहे हैं। ऐसे में, राजनीति में शामिल शिक्षित लोगों और अशिक्षितों में फर्क करना लगभग असंभव ही है, पार्टियांे की न अपनी कोई विचारधारा है और न ही नेता व्यक्तिगत तौर पर उसूलों पर चलने का सुदृढ़ निर्णय लेते दिखाई देते है। आज की राजनीति सरोकारांे से परे, केवल सत्ता की राजनीति बनकर रह गई है और यह न केवल ऊपरी तौर पर दिखाई देता है बल्कि निचले स्तर पर भी खूब भली-भांति देखा जा सकता है। आज की छात्र राजनीति इसका उदाहरण है। पिछले कुछ समय से छात्र राजनेता जीत के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते दिखाई देते हैं। साम-दाम-दंड-भेद यहां सब कुछ एक साथ देखा जा सकता है। छात्रा नेताओं में परिपक्वता, गंभीरता और समाज के प्रति निष्ठा, ये सब गुजरे जमाने के शब्द से जान पड़ते हैं। कहीं सुना था कि आज का युवा जीवन में रफ्रतार चाहता है, छात्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे छात्र नेता भी इसका शिकार हैं। 
पिछले कुछ समय से देखा जा रहा था कि कालेजों में प्रवेश से लेकर, अन्य मुद्दांे पर अपनी मनमानी करवाना और यदि अपनी न चले तो तोड़पफोड़ व मारपीट करना ही जैसे छात्र राजनीति का दूसरा नाम हो गया था। यहां तक कि बु(िजीवियों का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू में भी छात्रसंघ चुनावों के दौरान होने वाली प्रेजिडेंशियल डिबेट का स्तर लगातार गिरता देखा गया। अब तो छात्रों में डिबेट के दौरान हाथापाई भी आम हो चली है। यूपी में छात्र राजनीति के नाम पर कत्लेआम से भी लोग परहेज नहीं करते। शायद यही वजह रही कि अप्रैल 2006 के विधानसभा चुनावों में जीतने के बाद, मायावती ने राज्य में छात्रसंघांे पर पाबंदी लगाने का पफरमान जारी कर दिया। और उसी दिन उच्चतम न्यायालय ने भी छात्रसंघों के लिए प्रतिकूल टिप्पणी की। जस्टिस अरिजित पसायत का कहना था कि विश्वविद्यालय व कालेजों में पढ़ने वाले छात्र महम पार्टटाइम छात्राऔर पफुलटाइम नेता हो गए हैं।
छात्रसंघों पर पाबंदी का पफैसला भले ही तानाशाही का द्योतक हो, लेकिन छात्र राजनीति का मुद्दा उच्चतम न्यायालय में आने का कम-से-कम एक पफायदा तो जरूर मिला, छात्र राजनीति को नजरअंदाज करने वालों के बीच भी यह मुद्दा चर्चा का विषय बना और हो न हो उसके कुछ अच्छे परिणाम भी सामने आए।
लिंगदोह समिति की सिपफारिश से यह साफ हो गया कि छात्रसंघांे का गठन विश्वविद्यालयों व छात्रों के विकास के लिए आवश्यक और लोकतंत्रा की सेहत के लिए अनिवार्य है। हालांकि समिति की सिफारिश पर बहुत से लोग नाखुश दिखाई दे रहे हैं, लेकिन यदि इन सिफारिशों पर गंभीरता से सोचा जाए तो इनमें कुछ भी गलत नजर नहीं आता। 
कुछ लोगों का मानना है कि लिंगदोह समिति की, छात्र संगठनों व राजनैतिक पार्टियों के गठजोड़ को लेकर की गई नकारात्मक सिफारिश बेमानी है क्यांेकि विचारधारा के निर्वहन के लिए पार्टी का दिशानिर्देश होना जरूरी है लेकिन पार्टियां किस प्रकार अपनी लीक पर चलती हैं यह हमने देख ही लिया है। जो कांग्रेस अपनी सत्ता जमाने के लिए उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ती, वही मौका पड़ने पर, मायावती से गठजोड़ करने को भी तैयार रहती है। कुछ ऐसा ही हाल तथाकथित सोशलिस्ट और कम्यूनिस्टों का भी है। बल्कि उनकी विचारधारा का अहसास तो हमें द्वितीय विश्वयु( के समय से ही है, जब ब्रिटेन और रूस की दोस्ती को देख, सोशलिस्टों ने यहां तक कहना शुरू कर दिया था कि गोरे हमारे दुश्मन नहीं हैं। 
यहां लिंगदोह समिति की रिपोर्ट को एक बार पिफर से ध्यान से देख लेना जरूरी होगा। दरअसल, इस रिपोर्ट में 1981 में विश्वविद्यालय अनुदान केंद्र ;यूजीसीद्ध समिति का जिक्र मिलता है, जिसका मजमून कुछ इस प्रकार है, ‘शिक्षक व छात्रों का एक वर्ग केवल मतदाता ही नहीं हैं, वरन् स्थानीय, राज्यीय व संसद के भावी उम्मीदवार भी हैं। अतः हम इसमें कोई बुराई नहीं देखते कि राजनैतिक पार्टियां हमारे विश्वविद्यालयों के परिसरों में सक्रिय हों। राष्ट्रीय विकास के पहलुओं, योजनाओं व विभिन्न विचारधाराओं के बारे में विमर्श स्वागत योग्य हैं और इस प्रकार की राजनैतिक गतिविधियां विश्वविद्यालयों के विकास की द्योतक हैं। लेकिन, हमें यह कहते हुए बहुत दुख होता है कि परिसरों में हम जिस प्रकार की राजनैतिक गतिविधियां देख रहें हैं, वे अपने स्वरूप में अत्यंत दयनीय दिखाई देती हैं और उनसे राजनीति का नाम खराब होता है।’ 
यदि इस एक सिपफारिश के अलावा, अन्य सिपफारिशों की बात की जाए, तो उनमें भी कोई बुराई नहीं बल्कि समानता व पारदर्शिता का ही अधिक भाव दिखता है। मसलन, चुनाव के खर्च की अधिकतम राशि 5000 रुपये तय की गई है। इसे यदि सकारात्मक रूप से देखा जाए, तो इससे पफायदा यह होगा कि एक मध्यम परिवार से आने वाला युवा, जो राजनीति की समझ और समाज के प्रति सरोकार का भाव रखता है, वह भी छात्र राजनीति में शामिल हो सकेगा। इसी तरह, खर्च का ब्यौरा देने पर तमाम छात्रों के बीच यह संदेश जाएगा कि उन्होंने अपने लिए जिन प्रतिनिधियों का चुनाव किया है, वे उनके प्रति वाकई जिम्मेदार हैं। अंततः लिंगदोह, समिति की जो सिपफारिश छात्रा राजनीति में बढ़ते आपराधीकरण की रोकथाम की बात करती है, उससे किसी को भी विरोध नहीं होना चाहिए क्यांेकि हम सभी यह अच्छी तरह जानते हैं कि आपराधीकरण का रोग किस तरह छात्र राजनीति को खा रहा है और यदि अब भी इसे न रोका गया तो यह जल्द ही नासूर में बदल सकता है।
निष्कर्ष के तौर पर, छात्र राजनीति को देश की राजनीति के झरोखे के रूप में देखा जा सकता है। हम छात्र राजनीति को जो शक्ल देंगे, उसी का व्यापक आकार हमें देश की राजनीति के रूप में दिखाई देगा। आज जब देश की राजनीति में हर तरह की विकृतियां शामिल हो चुकी हैं, तो जरूरी है कि हम निचले स्तर से ऐसे बदलावों की शुरुआत करें, जो ऊपरी स्तर पर स्वतः ही पफैल जाएं। जाहिर है, यह काम छात्र नेताओं की पहल और इस दिशा में उनके सकारात्मक रवैये से ही शुरू होगा क्योंकि देश की राजनीति की असली जड़ें तो वे ही हैं।

राजनीति से नहीं, राजनैतिक दलों से सावधान रहें छात्र



आज के संदर्भ में छात्र संघों की क्या प्रसंगिकता है? इस प्रश्न का उत्तर जांचने के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। अलग-अलग कोणों से दृश्य भी अलग-अलग ही दिखाई देगा। महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में छात्र पढ़ने आते हैं, उनमें से बहुत सेे यहां रहते भी हंैं। उनकी अनेक आश्यकताएं भी होंगी ही-कुछ दिन-प्रतिदिन की चर्या के बारे में होगी तो कुछ शैक्षिक परिवेश के बारे में या अकादमीय वातावरण के बारे में। अपनी इन आवश्यकताओं को पूरा करवाने और विश्वविद्यालय में जीवन को अधिक सुचारू ढंग से चलाने के लिए अगर छात्र सामूहिक तौर पर अधिकारियों से बात करना चाहें और इस क्रम में एक संगठन का रूप बने तो यह किसी भी तरह अस्वाभाविक या अनुचित तो नहीं होगा। कल भी यह स्वाभाविक था आज भी स्वाभाविक है। लेकिन जब हम छात्र संघों की प्रासंगिकता की चर्चा करते हैं तो शायद इस स्वाभाविक प्रक्रिया से आगे की स्थिति पर विचार करना चाहते हैं। हम छात्र राजनीति की बात करना चाहते हैं। हमारा प्रश्न है कि क्या विश्वद्यिालयों को राजनीति का अखाड़ा बनाना चाहिए। इसे भी एक नजरिए से गलत ठहराया जा सकता है तो दूसरे से एकदम वाजिब। दरअसल अंतर राजनीति की परिभाषा और उस की भूमिका के बारे ही है।
जब देश संकट में हो, जब उसकी स्थिति चिंताजनक हो, अराजकता का माहौल हो तो किसी भी नागरिक से पूछना असंगत ही होगा कि वह देश के इस संकटकाल में अपना योग देगा कि नहीं। यह हम सब मानकर ही चलते हैं कि ऐसे मौके पर हमारा यह कर्तव्य है। ऐसे वातावरण में पहल युवक करें यह भी स्वाभाविक ही है। शिक्षालय युवकों की सबसे बड़ी संस्था होती है। वहां पढ़ रहे छात्रा ऐसे माहौल से अछूते रहें यह कैसे सम्भव है? गांधी जी के विभिन्न आंदोलनों में अगर बड़ी संख्या में युवक मैदान में कूद पड़े तो उनमें अधिकतर किसी न किसी स्तर पर छात्र ही तो थे। छात्रों को स्कूल कालेज छोड़ कर स्वतंत्राता की जंग में सहयोग करने का आह्नान किया गया था। कारण यह था कि स्वतंत्राता की जंग अंग्रेजी गुलामी में शिक्षण से अधिक बड़ा उद्देश्य था। जिस उद्देश्य के लिए जान छोड़ी जा सकती थी उस के लिए पढ़ाई भी छोड़ी जा सकती थी। स्वतंत्रता के बाद भी कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर राष्ट्रीय आंदोलनों में छात्रों ने खुलकर भाग लिया। जेपी आंदोलन से भी पहले गुजरात छात्रा आंदोलन और उससे भी पहले असम गण परिषद के आंदोलनों में छात्रों की बड़ी भूमिका रही है। स्पष्ट है कि किसी राष्ट्रीय संकट या आम जन के गहरे सरोकार के मुद्दे पर अगर युवा पीढ़ी में आक्रोश होता है तो उसका सीधा असर छात्रों पर पड़ेगा ही। क्योंकि न केवल शिक्षण संस्थान युवकों के सबसे बड़े केंद्र होते हैं अपितु ये युवक सामान्य युवकों की तुलना में समय और स्थिति की नजाकत को सही तरह समझ भी लेते हैं। यह केवल भारत में ही नहीं दुनिया के हर देश में हुआ है। हर बड़ी क्रांति या बदलाव में छात्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
विश्वविद्यालय ज्ञान का केंद्र होता है। जिन विषयों का अध्ययन वहां होता है उन सबका सम्बंध हमारे जन जीवन और राष्ट्र के हितों से होता है। देश और समाज को समझने के ही विभिन्न आयामों का अध्ययन और अनुसंधान विश्वविद्यालयों में होता है। यह सोचना अव्यावहारिक है कि ऐसे संस्थानों में पढ़ने वाले युवा कृषि के बारे में जानकारी हासिल करेे और कृषक के बारे उदासीन रहें, न्याय, राजनीति, संविधान, विकास, गरीबी, जल, जंगल, जमीन के बारे में खूब जाने लेकिन अपने आसपास इन ही मुद्दों की जमीनी सच्चाई संे आंख मूंदे रहें? जिन छात्रों को केवल अपने ही भविष्य- बड़ी नौकरी, बडे़ कारोबार की ही चिंता हो वे शायद आंखें मूंद भी लें, लेकिन अधिसंख्य युवा नहीं कर सकते। और वे देश की इन समस्याओं को अपने निजी दृष्टिकोण से देखना आरम्भ करते हेंैं। जिस विषय का वे छात्र अध्ययन कर रहे हों उस की वास्तविक स्थिति को जानना और समझना भी उसी शिक्षा का हिस्सा माना जा सकता है। विश्वविद्यालय कोई अज्ञातवास नहीं होता जिस का बाहर की दुनिया से कोई रिश्ता ही न हो। शिक्षा समाप्ति के बाद उसे भी उसी दुनिया में आकर जीना और काम करना होता है। इसलिए विश्वविद्यालय के छात्रा भी उसी समाज के अभिन्न अंग होते हैं जिसकी राजनीति होती है। समाज में जो हो रहा है उससे न तो छात्र अछूता रह सकता है और न ही अछूता रहना उचित ही है। इस मायने में छात्र संघों का किसी राजनैतिक सामाजिक या आर्थिक विचारधारा के प्रति आकर्षित होना या उसके प्रति झुकना कोई अस्वाभाविक बात नहीं अपितु इसे छात्रों की जागरूकता ही कहा जाएगा।
लेकिन छात्रों की इस संगठित शक्ति के प्रभाव को देखकर राजनैतिक दलों मंे विश्वविद्यालयों में अपने-अपने अपने छात्र संगठन बनाने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है। स्वतंत्र भारत में राजनैतिक दलों के बीच रस्साकशी का प्रतिबिम्ब छात्र संगठनों में दिखाई देने लगा। वामपंथी या राष्ट्रवादी धर्मनिरपेक्ष या क्षेत्राीय छाप के छात्र संगठनों की भरमार आरम्भ हो गई। गठबंधन और विघटन, दोनों प्रवृत्तियों का विश्वविद्यालयों में प्रवेश हो गया। जब राष्ट्रीय राजनीति विखंडित हो और नैतिक पतन की ओर जा रही हो, जब राजनैतिक दलों का मुख्य उद्देश्य सत्ता पर किसी भी प्रकार कब्जा करना भर हो, जब चुनाव प्रणाली भ्रष्ट लोगों की हाथों में खेलने लगी हो तो राजनैतिक दलों का विश्वविद्यालयों के छात्रा संघों पर अधिकार और विश्वविद्यालयों के काम-काज में हस्तक्षेप छात्रों और देश के हित मंें कितना होगा, यह प्रश्न सामयिक भी है और प्रासंगिक भी। यह कहना एक बात है कि विचारधाराओं का जन्म विश्वविद्यालयों में ही होता है, लेकिन यह बात दूसरी है कि राजनैतिक दलों को अपने पालतू संगठनों के माध्यम से विश्वविद्यालयों को अपने कार्यकताओं का प्रशिक्षण स्थल बनाने का अधिकार है। वह समय अब हमारे देश में नहीं रहा जब राजनैतिक दल निश्चत विचारधाराओं का प्रतिनिधित्त्व करते थे। अब शायद ही कोई राष्ट्रीय दल यह दावा कर सके कि वह उसी विचारधारा पर चलता है जिसके आधार पर उसका गठन हुआ था। यह न तो तथाकथित गांधीवादी दलों का दावा हो सकता है, न माक्र्सवादी दलों का और न ही राष्ट्रवादी दलों का। ये केवल बिल्ले हैं, विचारधाराएं नहीं। पिफर अब तो राजनैतिक दलों को दावा करने के लिए भी विचारधाराओं की आवश्यकता नहीं पड़ती है। किसी जाति प्रजाति, क्षेत्रा या किसी भाषा-बोली, किसी संप्रदाय के भी राजनैतिक दल देश में हैं और कहीं-कहीं सत्ता में भी है। ऐसे में राजनैतिक दलों के सीधे हस्तक्षेप से विश्वविद्यालयों का वातावरण भी उतना ही दूषित होगा जितना राजनीति का है। छात्रा संघों के चुनावों में धन और बल का भारी उपयोग हमारी राजनैतिक दलों की ही देन है। इस माहौल में प्रशिक्षित छात्रा सामाजिक समरसता में या अखिल भारतीय दृष्टिकोण विकसित करने में कितना योगदान कर पाएंगे यह प्रश्न ऐसा है जिसका उत्तर छात्रों को स्वयं देना चाहिए।

एक उद्देश्य, एक नारा, एक नेतृत्व





परिवर्तन हमेशा भूख और अभाव से नहीं होता। लोग भूखों रह जाते हैं, अभाव भी सहन कर जाते हैं। सभी लड़ने या मरने नहीं जाते। आन्दोलन तब होते जब लोगों को जीवन के लिए एक उद्देश्य, एक नारा, एक नेतृत्व मिल जाता है। जिसके लिए वे लड़ सकें। आंदोलन खड़ा करता है, वर्तमान व्यवस्था से असंतुष्टि और अपने जीवन को बलिदान कर देने वाला वह आदर्श जो व्यवस्था को ठीक कर देने का स्वप्न दिखाता है। 
यदि विद्यार्थी आंदोलन की बात करें तो विद्यार्थी परिषद ने इसमें एक बड़ा बदलाव लाया, जब उसने ‘आज का विद्यार्थी कल का नागरिक’ जैसे सूत्रा वाक्यों से इंकार किया। परिषद का मानना है कि ‘आज का विद्यार्थी आज का नागरिक’ है। 
जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की चर्चा अक्सर होती है। उनके नेतृत्व में व्यवस्था से असंतोष के साथ संपूर्ण क्रांति का नारा हुआ। जब जेपी जैसा विश्वनीय नेता खड़ा हुआ तो आंदोलन की तीनों शर्तें पूरी हुई। 
पहली नौजवानों में व्यवस्था से असंतोष, दूसरा संपूर्ण क्रांति का बड़ा स्वप्न और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण जेपी का विश्वनीय नेतृत्व। जब तीनों शर्तें पूरी हुई तो आंदोलन अपने चरम तक पहुंचा और परिवर्तनकारी साबित हुआ। मुझे याद है, 74 में दिल्ली विश्वविद्यालय में एबीवीपी ;अरुण जेटली, विजय बिन्दल, हेमंत विश्नोई और पूर्णिमा सेठी का पूरा पैनल जीता था। उस वक्त वह पैनल एबीवीपी के नाम से ही प्रसि( था। इस चुनाव की खास बात यह थी कि इस बार डूसू का चुनाव कैम्पस की अव्यवस्था के लिए नहीं लड़ा गया, बल्कि देश को बदलने के लिए था। इस चुनाव में अरुण जेटली 17,000 वोट के अंतर से जीते थे। चूंकि उस वक्त पूरा देश ही व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहा था। इस आंदोलन में असाधारण प्रतिभा के लोग सामने आए, जैसे आजादी के छात्र आंदोलन में थे। जहां जितनी जरुरत, वहां उतने ही क्षमतावान नेता। उदाहरण के तौर पर रामबहादुर राय, गोविन्दाचार्य, रविशंकर, सुशील मोदी, वेंकैया नायडू। 
यह आंदोलन बढ़ा जयप्रकाशजी की वजह से और चरम पर पहंुचा आपातकाल के समय। इसी दौरान गुजरात में ‘नवनिर्माण’ के नाम से छात्रों का एक और आंदोलन चल रहा था। इस आंदोलन में राजनीतिक दलांे के नेताओं का प्रवेश वर्जित था। मैंने इस दौरान एक छात्रा नेता की हैसियत से पूरे गुजरात का दौरा किया। मेरे किसी जनसभा में दस-बारह हजार से कम की भीड़ नहीं रही। छात्रों की मांग थी, गुजरात के मुख्यमंत्राी चिमनभाई पटेल अपने विधायकों के साथ त्याग-पत्र दें। छात्र आंदोलनकारियों के साथ मोरारजी देसाई भूख हड़ताल पर बैठे और छात्रों का यह आंदोलन सपफल हुआ। सरकार गिर गई। 
12 जून 1975 की तारीख दो अर्थों मंे बेहद महत्वपूर्ण होकर आई। गुजरात में चिमनभाई की सरकार गई।  बाबू भाई पटेल मुख्यमंत्राी बने और इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित हो गया। जून में आपातकाल लगा और चुनाव हुए और सरकार गई। 
देश को पुनः एक स्वप्न और उन स्वप्नों के लिए उनका नेतृत्व करने वाला विश्वसनीय नेतृत्व खोजना है। हमारी तरुणाई में ऐसा नेतृत्व हमारे पास था। हमें विश्वास है कि भारत पुनः अपना मार्ग खोज लेगा और हमारे जीवन में अपने लक्ष्य को हम प्राप्त करेंगे।

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