राजनीति से नहीं, राजनैतिक दलों से सावधान रहें छात्र



आज के संदर्भ में छात्र संघों की क्या प्रसंगिकता है? इस प्रश्न का उत्तर जांचने के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। अलग-अलग कोणों से दृश्य भी अलग-अलग ही दिखाई देगा। महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में छात्र पढ़ने आते हैं, उनमें से बहुत सेे यहां रहते भी हंैं। उनकी अनेक आश्यकताएं भी होंगी ही-कुछ दिन-प्रतिदिन की चर्या के बारे में होगी तो कुछ शैक्षिक परिवेश के बारे में या अकादमीय वातावरण के बारे में। अपनी इन आवश्यकताओं को पूरा करवाने और विश्वविद्यालय में जीवन को अधिक सुचारू ढंग से चलाने के लिए अगर छात्र सामूहिक तौर पर अधिकारियों से बात करना चाहें और इस क्रम में एक संगठन का रूप बने तो यह किसी भी तरह अस्वाभाविक या अनुचित तो नहीं होगा। कल भी यह स्वाभाविक था आज भी स्वाभाविक है। लेकिन जब हम छात्र संघों की प्रासंगिकता की चर्चा करते हैं तो शायद इस स्वाभाविक प्रक्रिया से आगे की स्थिति पर विचार करना चाहते हैं। हम छात्र राजनीति की बात करना चाहते हैं। हमारा प्रश्न है कि क्या विश्वद्यिालयों को राजनीति का अखाड़ा बनाना चाहिए। इसे भी एक नजरिए से गलत ठहराया जा सकता है तो दूसरे से एकदम वाजिब। दरअसल अंतर राजनीति की परिभाषा और उस की भूमिका के बारे ही है।
जब देश संकट में हो, जब उसकी स्थिति चिंताजनक हो, अराजकता का माहौल हो तो किसी भी नागरिक से पूछना असंगत ही होगा कि वह देश के इस संकटकाल में अपना योग देगा कि नहीं। यह हम सब मानकर ही चलते हैं कि ऐसे मौके पर हमारा यह कर्तव्य है। ऐसे वातावरण में पहल युवक करें यह भी स्वाभाविक ही है। शिक्षालय युवकों की सबसे बड़ी संस्था होती है। वहां पढ़ रहे छात्रा ऐसे माहौल से अछूते रहें यह कैसे सम्भव है? गांधी जी के विभिन्न आंदोलनों में अगर बड़ी संख्या में युवक मैदान में कूद पड़े तो उनमें अधिकतर किसी न किसी स्तर पर छात्र ही तो थे। छात्रों को स्कूल कालेज छोड़ कर स्वतंत्राता की जंग में सहयोग करने का आह्नान किया गया था। कारण यह था कि स्वतंत्राता की जंग अंग्रेजी गुलामी में शिक्षण से अधिक बड़ा उद्देश्य था। जिस उद्देश्य के लिए जान छोड़ी जा सकती थी उस के लिए पढ़ाई भी छोड़ी जा सकती थी। स्वतंत्रता के बाद भी कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर राष्ट्रीय आंदोलनों में छात्रों ने खुलकर भाग लिया। जेपी आंदोलन से भी पहले गुजरात छात्रा आंदोलन और उससे भी पहले असम गण परिषद के आंदोलनों में छात्रों की बड़ी भूमिका रही है। स्पष्ट है कि किसी राष्ट्रीय संकट या आम जन के गहरे सरोकार के मुद्दे पर अगर युवा पीढ़ी में आक्रोश होता है तो उसका सीधा असर छात्रों पर पड़ेगा ही। क्योंकि न केवल शिक्षण संस्थान युवकों के सबसे बड़े केंद्र होते हैं अपितु ये युवक सामान्य युवकों की तुलना में समय और स्थिति की नजाकत को सही तरह समझ भी लेते हैं। यह केवल भारत में ही नहीं दुनिया के हर देश में हुआ है। हर बड़ी क्रांति या बदलाव में छात्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
विश्वविद्यालय ज्ञान का केंद्र होता है। जिन विषयों का अध्ययन वहां होता है उन सबका सम्बंध हमारे जन जीवन और राष्ट्र के हितों से होता है। देश और समाज को समझने के ही विभिन्न आयामों का अध्ययन और अनुसंधान विश्वविद्यालयों में होता है। यह सोचना अव्यावहारिक है कि ऐसे संस्थानों में पढ़ने वाले युवा कृषि के बारे में जानकारी हासिल करेे और कृषक के बारे उदासीन रहें, न्याय, राजनीति, संविधान, विकास, गरीबी, जल, जंगल, जमीन के बारे में खूब जाने लेकिन अपने आसपास इन ही मुद्दों की जमीनी सच्चाई संे आंख मूंदे रहें? जिन छात्रों को केवल अपने ही भविष्य- बड़ी नौकरी, बडे़ कारोबार की ही चिंता हो वे शायद आंखें मूंद भी लें, लेकिन अधिसंख्य युवा नहीं कर सकते। और वे देश की इन समस्याओं को अपने निजी दृष्टिकोण से देखना आरम्भ करते हेंैं। जिस विषय का वे छात्र अध्ययन कर रहे हों उस की वास्तविक स्थिति को जानना और समझना भी उसी शिक्षा का हिस्सा माना जा सकता है। विश्वविद्यालय कोई अज्ञातवास नहीं होता जिस का बाहर की दुनिया से कोई रिश्ता ही न हो। शिक्षा समाप्ति के बाद उसे भी उसी दुनिया में आकर जीना और काम करना होता है। इसलिए विश्वविद्यालय के छात्रा भी उसी समाज के अभिन्न अंग होते हैं जिसकी राजनीति होती है। समाज में जो हो रहा है उससे न तो छात्र अछूता रह सकता है और न ही अछूता रहना उचित ही है। इस मायने में छात्र संघों का किसी राजनैतिक सामाजिक या आर्थिक विचारधारा के प्रति आकर्षित होना या उसके प्रति झुकना कोई अस्वाभाविक बात नहीं अपितु इसे छात्रों की जागरूकता ही कहा जाएगा।
लेकिन छात्रों की इस संगठित शक्ति के प्रभाव को देखकर राजनैतिक दलों मंे विश्वविद्यालयों में अपने-अपने अपने छात्र संगठन बनाने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है। स्वतंत्र भारत में राजनैतिक दलों के बीच रस्साकशी का प्रतिबिम्ब छात्र संगठनों में दिखाई देने लगा। वामपंथी या राष्ट्रवादी धर्मनिरपेक्ष या क्षेत्राीय छाप के छात्र संगठनों की भरमार आरम्भ हो गई। गठबंधन और विघटन, दोनों प्रवृत्तियों का विश्वविद्यालयों में प्रवेश हो गया। जब राष्ट्रीय राजनीति विखंडित हो और नैतिक पतन की ओर जा रही हो, जब राजनैतिक दलों का मुख्य उद्देश्य सत्ता पर किसी भी प्रकार कब्जा करना भर हो, जब चुनाव प्रणाली भ्रष्ट लोगों की हाथों में खेलने लगी हो तो राजनैतिक दलों का विश्वविद्यालयों के छात्रा संघों पर अधिकार और विश्वविद्यालयों के काम-काज में हस्तक्षेप छात्रों और देश के हित मंें कितना होगा, यह प्रश्न सामयिक भी है और प्रासंगिक भी। यह कहना एक बात है कि विचारधाराओं का जन्म विश्वविद्यालयों में ही होता है, लेकिन यह बात दूसरी है कि राजनैतिक दलों को अपने पालतू संगठनों के माध्यम से विश्वविद्यालयों को अपने कार्यकताओं का प्रशिक्षण स्थल बनाने का अधिकार है। वह समय अब हमारे देश में नहीं रहा जब राजनैतिक दल निश्चत विचारधाराओं का प्रतिनिधित्त्व करते थे। अब शायद ही कोई राष्ट्रीय दल यह दावा कर सके कि वह उसी विचारधारा पर चलता है जिसके आधार पर उसका गठन हुआ था। यह न तो तथाकथित गांधीवादी दलों का दावा हो सकता है, न माक्र्सवादी दलों का और न ही राष्ट्रवादी दलों का। ये केवल बिल्ले हैं, विचारधाराएं नहीं। पिफर अब तो राजनैतिक दलों को दावा करने के लिए भी विचारधाराओं की आवश्यकता नहीं पड़ती है। किसी जाति प्रजाति, क्षेत्रा या किसी भाषा-बोली, किसी संप्रदाय के भी राजनैतिक दल देश में हैं और कहीं-कहीं सत्ता में भी है। ऐसे में राजनैतिक दलों के सीधे हस्तक्षेप से विश्वविद्यालयों का वातावरण भी उतना ही दूषित होगा जितना राजनीति का है। छात्रा संघों के चुनावों में धन और बल का भारी उपयोग हमारी राजनैतिक दलों की ही देन है। इस माहौल में प्रशिक्षित छात्रा सामाजिक समरसता में या अखिल भारतीय दृष्टिकोण विकसित करने में कितना योगदान कर पाएंगे यह प्रश्न ऐसा है जिसका उत्तर छात्रों को स्वयं देना चाहिए।

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