आजकल एक चर्चा हो रही है। शिक्षा क्षेत्रा के संदर्भ में। वो यह कि छात्र आन्दोलन अप्रासंगिक हो गया है। ये कि आज के भारत में छात्र आन्दोलनों की कोई आवश्यकता नहीं है याकि छात्र आन्दोलन दिशाहीन होते हैं। इसीलिए उनका होना राष्ट्रहित में नहीं। या कि छात्र आन्दोलन देश के विद्यार्थियों के कैरियर में बाधा पहुंचाएगा और इस तरह देश के निर्माण में भी। इस प्रकार के बहुत सारे प्रश्न हैं जो छात्रा आन्दोलन के भविष्य को लेकर उठ रहे हैं। छात्र आन्दोलन के भविष्य की चिन्ता करने वालों में दोनों प्रकार के लोग हैं। वे जो छात्र आन्दोलन के पक्षधर हैं। और वे जो किसी भी प्रकार के छात्र आन्दोलन को निरर्थक मानते हैं। 
वस्तुतः क्या छात्र आन्दोलन अब देश के विकास के लिए आवश्यक नहीं रहे। और क्या पिछले छात्र आन्दोलनों से देश के भविष्य को सवांरने में कोई योगदान हासिल हुआ है। यह सवाल इस मायने में भी महत्वपूर्ण है जब कुछ लोग यह मानते हैं कि छात्रा आन्दोलन निरर्थक हैं। 
दरअसल छात्र आन्दोलन का इतिहास तत्कालीन दमनकारी नीतियों, व्यवस्था की खामियों और गुलामी के बोझ के विरु( व्यापक संघर्ष और बलिदान का इतिहास रहा है। इतिहास लेखन में अगर भारतीय छात्र आन्दोलनों के इतिहास लेखन का ध्यान रखा गया होता तो उसमें अनेक स्वर्णिम और गौरवमयी पृष्ठ जुड़ते। 
अपने देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के प्रयास से छात्र कैसे अछूते रह सकते हैं। इसीलिए सन् 1874 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और आनन्द मोहन बोस ने ‘कोलकाता स्टुडेण्ट एसोसिएशन’ की स्थापना कर भारत के स्वतंत्राता आन्दोलन, स्वदेशी आन्दोलनों में छात्रों के साथ बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। स्वतंत्रता आन्दोलन के हमारे प्रमुख महान नेताओं लोक मान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, विपिन चन्द्र पाल, एनीबेसेंट आदि ने छात्र जागरण के माध्यम से जन आन्दोलन में प्राण पफूंकने का काम किया।
भारत में छात्र आन्दोलन की आवश्यकता के विचार पर एक बड़ा ऐतिहासिक और क्रान्तिकारी मोड़ तब आया जब 1920 ई. में महात्मा गांधी ने अपने प्रसि( असहयोग आन्दोलन में देश के छात्रों से पढ़ाई छोड़कर शामिल होने का आह्वान किया। सुभाषचन्द्र बोस, जय प्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया आदि नेताओं के स्फूर्ति केन्द्र छात्रा ही थे। 1942 का भारत छोड़ों आन्दोलन भी छात्रों की प्रभावी उपस्थिति के कारण प्राणवन्त और प्रभावशाली बना। हालांकि इस समय भी छात्र आन्दोलनों को लेकर दो तरह की सोच थी एक यह कि छात्र पूरी तरह केवल पढ़ाई करे और बाद में राष्ट्रीय समस्याओं व राष्ट्रीय विकास में योगदान दें। दूसरी यह कि हर बड़े कार्य में देश के सभी वर्गों की साझेदारी हो। और इसमें छात्र भी सम्मलित हों।
देश के स्वतंत्राता आन्दोलन के इतिहास को सरसरी तौर पर जानने वालों को भी यह ज्ञान है कि स्वतंत्रता संग्राम में छात्रों की क्या भूमिका रही? अपने देश के लिए संघर्ष करने यहां तक कि प्राण देने में भी छात्र कभी पीछे नहीं रहे। उनका आन्दोलनों में कूदना कभी-भी अनुशासन हीनता, अपरिपक्वता को नहीं दर्शाता। वरन् एक सुविचारित सोच, कठोर अनुशासन और आदर्श को हमारे सामने रखता है।
दुर्भाग्य से स्वतंत्राता के बाद हमारे नेताओं ने छात्रों से कहा कि देश के लिए उनकी भूमिका समाप्त हो गई है। वे अपनी पढ़ाई करें और अपना कैरियर देखें। परिणामतः देश को बनाने और संवारने के लिए तैयार जोशीले, निःस्वार्थी, आदर्श से भरे हुए, कठोर परिश्रम से पीछे न हटने वाले छात्रों का समूह गहरी निराशा में चला गया। और राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका के प्रति दिग्भ्रमित हो गया। इसी समय देश के प्रबु( राष्ट्रवादी प्राध्यापकों और छात्रों ने राष्ट्र निर्माण में अपनी सशक्त भूमिका के निर्वहन के लिए विचार-विमर्श शुरू किया। और देशभर के निराश लक्ष्यहीन छात्रों को राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगाने के लिए ‘9 जुलाई सन् 1949’ को ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्’ की स्थापना की। इतिहास साक्षी है कि तब से लेकर अब तक संविधान में देश का नाम इंडिया की जगह भारत लिखा जाए। शिक्षा का ढांचा पूरी तरह भारतीय हो के आन्दोलन से लेकर गुजरात का प्रसि( छात्र आन्दोलन, बिहार आन्दोलन से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का सबसे बड़ा छात्र आन्दोलन जिसमें विद्यार्थी परिषद् के छात्र नेताओं के आह्वान पर जयप्रकाश नारायण ने उसका नेतृत्व स्वीकार किया फलतः देश एक तानाशाह को सबक दे सका। 
छात्र आन्दोलन के समर्थन में ऐसे तमाम प्रसंगों से इतिहास भरा पड़ा है जिसमें छात्रों ने अपने कैरियर की चिन्ता करते हुए देश के निर्माण में भी अपना अप्रतिम योगदान दिया।
अब सवाल यह है कि देश में सब कुछ ठीक हो गया है? या छात्र अब इस लायक नहीं रहा कि वह देश के विकास में अपना योगदान दे सके? क्या इस देश से भ्रष्टाचार का समूल नाश हो गया है? जिसके विरु( छात्र असन्तोष पनपता है। क्या भारत में भारत के लिए भारतीय शिक्षा प्रणाली लागू हो गई है। क्या छात्रों को प्रोपफेशनल काॅलेजों में बिना डोनेशन के प्रवेश मिल रहा है? उस पर भी उन्हें वहां अपेक्षित सभी सुविधाएं दी जा रही हैं या वर्षभर किसी न किसी बहाने पैसा उगाही का हथियार बना रखा है। देश में नैतिक पतन अपने चरम पर है। विद्यार्थियों के लिए आवश्यक समझा जाने वाला घी, दूध यूरिया से बनाया जा रहा है। सब्जियों में हानिकारक रसायन से कलर किया जा रहा है। फल हानिकारक रसायन से अखाद्य हो चुके हैं। नौकरी पाने के लिए मोटा पैसा रिश्वत के रूप में दिया जा रहा है।
पढ़ाई के लिए जरूरी बिजली दिन में छः या आठ घण्टे शहरों में और गांवों में पूरे सप्ताह में पांच-छह घंटे आती है। एन.जी.ओ. अधिकांशतः भ्रष्ट हैं या कुछ निजी स्वार्थ की राजनीति में लिप्त है। और इन सबके विरु( कौन सी संस्था है जो आवाज उठा रही है। क्या इन सबको नियति के भरोसे छोड़ दिया जाए।
शिक्षा में सुधार के लिए तरह-तरह की कमेटियां बनाई गईं। 1948-49 में राधाकृष्णन कमेटी। 1952-53 में मुदालियार कमेटी। 1964-66 में कोठारी कमीशन। परन्तु सरकार ने अपने ही द्वारा गठित कमेटियों की महत्वपूर्ण सिपफारिशों को लागू नहीं किया। छात्रसंघों के लिए बनी लिंगदोह कमेटी भी छात्रों के अधिकारों को सीमित ही करती है। छात्रों के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव का सुझाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर कुठाराघात है। हजारों छात्रों द्वारा अपने प्रतिनिधि के रूप में चुने गए छात्र नेताओं को परिसर से बाहरी छात्र नेता बताकर उसकी अनदेखी करना लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व प्रक्रिया की अपेक्षा तो है ही यह स्थिति छात्र आन्दोलनों को कुंद करने की साजिश की तरपफ भी इशारा करती है। 
वस्तुतः आज के समय में ही छात्र आन्दोलन की आवश्यकता सर्वाधिक है। यह आवश्यकता छात्रों के अपने भविष्य और इस तरह देश के सुन्दर भविष्य के लिए ही अधिक है। ध्यान रहे छात्रों के कैरियर को बनाने के लिए कोई और आगे नहीं आयेगा। स्वयं छात्रों को आगे आना होगा। और वे इसमें सक्षम भी हैं। छात्रों के कैरियर के नाम पर उन्हें आन्दोलनों में हिस्सा न लेने के लिए बरगलाने वालों से उन्हें सावधान रहना होगा। मुझे कई ऐसे आन्दोलनों की जानकारी है जहां अगर छात्रों ने अपने बर्बाद होते कैरियर को बचाने के लिए स्वयं लम्बे संघर्ष का सूत्रापात न किया होता तो उनका भविष्य अंधकारमय था उनकी बात को कोई दूसरी संस्था उठाने वाली नहीं थी। इसी तरह राष्ट्रीय एवं सामाजिक विषयों में भी उन्हें अपनी ऊर्जा लगानी होगी। यह ऐसे ही होगा जैसे कि जिस जहाज से हमें पार उतरना हैं उनके छिद्र ठीक कर रहे हों। तभी तो जब हम पढ़कर निकलेंगे तो हमें अपनी मंजिल तक ले जाने वाला जहाज हमें तैयार मिलेगा। हमारा जहाज तो हमारा अपना स्वस्थ सुगठित, समृ( देश ही है। 
भारत इस समय सर्वाधिक युवा शक्ति वाला देश है। पर इस अथाह शक्ति को राष्ट्र निर्माण में लगाने के लिए हमारी सरकार के पास कोई एजेंडा नहीं है। छात्रों को सही शिक्षा मिले, निर्बाध शिक्षा के लिए सभी सुविधाएं मिले और शिक्षा के बाद उसकी उपयोगिता के लिए रोजगार के अवसर मिलें। इसका कोई विचार हमारी सरकार नहीं कर रही। इस स्थिति में एक बार पूरी शक्ति और एक जुटता से छात्र युवा समुदाय को ही विचार करना पड़ेगा। देश की भयानक होती जा रही समस्याओं के प्रति आत्मघाती उदासीनता को तोड़ना होगा और एक बार  लम्बे और प्रभावशाली छात्र आन्दोलन को पूरे देश में हर छोटी-बड़ी समस्या को उखाड़ पफेंकने हेतु फैलाना होगा। छात्र आन्दोलन का व्यापक विस्पफोट ही बहरी हो रही सरकार के कान खोल सकेगा। तभी छात्र का भविष्य बनेगा और देश का भी। 

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