सार्वजनिक जीवन में आदर्श हस्तक्षेप का प्रतिनिधि


छात्र आन्दोलन आधुनिक सार्वजनिक जीवन का एक स्वाभाविक हिस्सा है। विशेषकर उच्च शिक्षा में ... छात्र, जो कि वयस्क है तथा मतदाता भी है। वह निश्चय ही ‘कल का नहीं वरन् आज का नागरिक है। समझौता परस्त सार्वजनिक जीवन में आदर्श हस्तक्षेप का प्रतिनिधि बन जाता है। छात्र आन्दोलन बहुत पुरानी घटनाओं एवं दुनिया के विभिन्न देशों के आन्दोलनों की कहानी के बजाय हमें अपने ही जीवन काल की घटनाओं से इसे समझना चाहिये।
1974 का बिहार-गुजरात आन्दोलन, जो व्यवस्थागत यथा स्थितिवाद एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ युग के युवा की हुंकार के समान था, प्रथमतः वह छात्र आन्दोलन ही था। इसी आन्दोलन ने अपने युग के वयोवृ ( लेकिन क्रांतिधर्मी बीज बाबू जयप्रकाश नारायण को पुनः सार्वजनिक जीवन में आने के लिये बाध्य कर दिया। बाबू जयप्रकाश नारायण का जीवन सुदीर्घ तपस्या एवं परिपक्व अनुभवों का पुंज था। युवको चित प्रखरता, आदर्शवाद, बलिदान की क्षमता एवं उत्साह के पुंज छात्र आन्दोलन को जयप्रकाश का नेतृत्व प्राप्त हुआ, परिणामतः .... राष्ट्र ही आन्दोलन मंच हो गया। घबराई राज्य शक्ति ने आपातकाल का कवच ओढ़ लिया, लोकतंत्रा की हत्या कर दी गयी। पुनः आपातकाल के खिलापफ जो चुनौतिपूर्ण आन्दोलन हुआ, उसमें छात्रों की भूमिका सब से बड़ी रही। 60» से ज्यादा सत्याग्रही छात्र थे। आपातकाल परास्त हुआ। लोकतंत्र का पुनरोदय हुआ। यह सि( हुआ कि ‘छात्रा शक्ति वस्तुतः राष्ट्रशक्ति’ है। ये तो युगातंकारी आन्दोलन थे, ऐसे आन्दोलन रोज नहीं हुआ करते।
व्यवस्था को जकड़ने वाले यथा स्थितिवाद को तोड़ने के लिये सदैव ही छात्र आन्दोलन की आवश्यकता रहती है। शिक्षा का जिस तरह बाजारीकरण हो रहा है, निश्चय ही इसके खिलापफ छात्र आन्दोलन की आवश्यकता है। भारत का छात्र सामान्यतः अपने माता-पिता के खून-पसीने की कमाई से शिक्षा पाता है। व्यवस्था में व्याप्त अनीति एवं कदाचार के कारण बढ़ती महंगाई को आज का उच्च शिक्षा में रत छात्रा ज्यादा अच्छी प्रकार से समझता है। यदि वह इस कारण आन्दोलनमान होता है तो इसे अस्वाभाविक नहीं कहा जाना चाहिये। शिक्षा परिसरों में बढ़ती घिनौनी राजनीति एवं नौकर शाही करण, अकादमिक वातावरण को लील रहा है, इसके खिलापफ छात्रों को आन्दोलित होना चाहिये। संवेदनहीन व्यवस्थायें तथ्य एवं तर्कों के आधार पर नहीं वरन् निहित स्वार्थो के हितार्थ अनेक निर्णय छात्रों पर आरोपित करती है। यथा कम्प्यूटर लाबी को खुश करने के लिये तथा उनसे अपने हितो को साधने के लिये बिना बिजली व कक्षों की व्यवस्था लिये तथा बिना उपयुक्त अध्यापकों की व्यवस्था के कम्प्यूटर शिक्षा को अनविार्य कर छात्रों से शुल्क वसूल लिया जाता है, ऐसे अनेक मुद्दे होते है। छात्र आन्दोलन ही इन कुप्रवृतियों को नियंत्रित करने का एक मात्रा साधन है।
नौजवान कभी-कभी अति उत्साह में व्यावहारिक गलतियाँ करते है, कभी-कभी राजनेता उन्हें अपने चंगुल में पफंसा लेते है तथा कभी-कभी अवांछनीय तरीके भी इन आन्दोलनों में घुस जाते है। ऐसे में प्राध्यापक वर्ग का कर्तव्य बनता है कि वे छात्रों के आन्दोलन का समुचित मार्गदर्शन करें तथा समाज संजीदा लोग छात्रो के साथ आकर खड़े हो।
छात्रा आन्दोलनरत है तथा सभी प्राध्यापक उससे विरत है, इसी प्रकार छात्र आन्दोलनरत है तथा समाज का सक्रिय तथा संजीदा वर्ग उससे निरपेक्ष बना हुआ है, यह भी एक अवांछनीय स्थिति है। छात्रों की अपरीपक्वता को कुछ पूरक सहायता चाहिये होती है। इस पूरक सहायताओं के लिये समाज यदि तैयार नहीं है तो उन्हें अपने बच्चों की अपनी व्यवस्था के परिणामों को भुगतना चाहिये। इन कारणों से छात्रा आन्दोलनों को दोषी ठहराना अनुचित है।
परीक्षा का अकादमिक वातावरण मुख्यतः प्राध्यापकों एवं प्रशासन के नजरिये पर निर्भर रहता है। छात्र आन्दोलन से यह वातावरण नहीं बिगड़ता। वास्तव में योग्य अकादमिक वातावरण तो आन्दोलन की सार्थकता का कारण बनता है। अकादमिक रूप से दक्ष एवं सचेत आन्दोलनकारी ज्यादा गम्भीर एवं जिम्मेदार होता है। शिक्षा परिसरों में अकादमिक वातावरण के बिगड़ने के लिये जिम्मेदार तो कुलपतियों एवं प्राध्यापकों की नियुक्ति में होने वाली राजनीति है। आकादमिक दृष्टि से शून्य प्रशासन, आग में घी का काम करता है। विश्वविद्यालयों की खत्म होती स्वायत्ता एवं सीनेट, सिन्डीकेट एवं एकेडेमिक काउंसिल जैसे निकायों का निष्प्रभ हो जाना, इनमें नौकरशाही का अवांछनीय प्रभाव हो जाना आदि ऐसे कारक है जिन्होनें विश्वविद्यालयों के अकादमिक वातावरण को शिथिल किया है। छात्रा संघ के चुनाव या छात्रा आन्दोलनों पर यह तोहमत मढ़ना ‘उलटा चोर कोतवाल को डाँटे’ वाली कहावत को चरितार्थ करना है। ‘आज के छात्र आन्दोलन के लिये कोई विषय अविषय नहीं रहता। समाज का प्रत्येक विषय छात्र का विषय है, क्योंकि वह वयस्क नागरिक के रूप में समाज का हिस्सा है। छात्र आन्दोलन की इस युगीन प्रासंगिकता को सपफल कर छात्र संगठनों को अपना दायित्व निभाना चाहिये तथा समाज को इसके लिये सहकारी की भूमिका स्वीकार करनी चाहिये।



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