छात्र आंदोलनों की प्रासांगिकता



किसी भी देश का विकास तभी संभव है जब वहां की जनता जागरूक हो। बात अगर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की हो, तो यह और भी जरूरी हो जाता है। लेकिन, यहां ऐसा नहीं हो पा रहा क्योंकि आज भी देश में अशिक्षा और गरीबी व्याप्त है। ऐसे में, व्यापक स्तर पर यदि कोई जागरूकता की लहर पैदा कर सकता है तो वह कालेजों-विश्वविद्यालयों में पढ़ रहा युवा वर्ग है, जो न केवल शिक्षा के इन मठों में मिल रहे ज्ञान को आत्मसात कर सकता है, बल्कि लोगों के बीच भी इसका प्रचार-प्रसार कर सकता है, बशर्ते वह खुद कभी राह न भटके। यहां यह कहना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि पिछले कुछ दशकांे में छात्र राजनीति ने न केवल कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, बल्कि छात्र राजनीति के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायलय की दखल और लिंगदोह समिति के गठन व सिफारिशें आने के बाद, आज स्वयं छात्र राजनीति को ही संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। ऐसे मंे, कटघरे में खड़ी छात्र राजनीति का विश्लेषण निश्चय ही आवश्यक हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि यहां हम कोई नई बात कर रहे हैं, छात्र राजनीति के जरिये आम लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने की परंपरा हमारे यहां आजादी से पहले की है। छात्रों में राजनैतिक समझ ही थी, जिसने आजादी के यज्ञ में होम का काम किया। डोरेजियो से लेकर भगत सिंह, सभी कहीं न कहीं इसी कौम का हिस्सा रहे हैं। आजादी मिलने के बाद भी यह लौ थमी न थी और जब कभी भी देश में किसी भी तरह की उथल-पुथल मची, छात्र राजनीति से जन्मे आंदोलन उन्हें शांत करने में अहम भूमिका निभाते नजर आए। आजादी की अलख जगाने से लेकर, आदर्शवाद और आंदोलनों में पलती राजनीति ने देश को कई राजनेता दिए। वह चाहे सति के विरु( व विधवा विवाह के समर्थन में ईश्वर चंद विद्यासागर का 17वीं सदी का आंदोलन रहा हो, या 1882 में शुरू हुआ, थियोसोपिफकल सोसायटी का वसुधैव कुटुंबकम अभियान, इन सबसे लेकर विदेशी बायकाट, स्वदेशी और गांधी के तमाम अभियानों की सपफलता निश्चित तौर पर छात्रा सहयोग से ही संभव हो पाई। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलनों में हजारों-लाखों छात्रांे ने देश की आजादी को ही अपना भविष्य समझा और अपने इसी विश्वास के दम पर आजादी ले भी ली।
स्वतंत्रता उपरांत भी जब-तब, देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने का दमखम रखने वाले छात्र जब राजनीति में आए तो राज्य व केंद्र सरकारों को भी अपनी नीतियों में बदलाव करने पड़े। वर्ष 1959 में, लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों ने जब भ्रष्टाचार और जातिवाद के खिलापफ मोर्चा उठाया तो परिणामस्वरूप, राज्य सरकार को इस संबंध में जांच समिति बैठानी पड़ी। सन् 1968-71 के दौरान, पश्चिम बंगाल के छात्रों का अभियान लगातार जारी रहा। इस अभियान के जरिये न केवल पाकिस्तानी जेल से शेख मुजीबुर्रहमान की रिहाई की मांग उठती रही, बल्कि स्वतंत्रा बंगलादेश के मुद्दे पर विश्व भर के बु(िजीवी और आमजन इन छात्रों के साथ खड़े नजर आए। इसी तरह, देश में आपातकाल के दौरान, छात्रा नेताओं ने तत्कालीन सरकार के तानाशाही रवैये का जो मुंहतोड़ जवाब दिया, उसे पिफर से बयां करने की शायद ही कोई आवश्यकता हो। जय प्रकाश नारायण के साथ-साथ उस पीढ़ी के तमाम युवा नेता उस समय के सरोकारों के प्रति कितने गंभीर और निष्ठावान थे, इसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। 
इस दौर ने देश को तमाम ऐसे नेता दिये, जो देश के प्रति निष्ठावान, अपने काम के प्रति ईमानदार, समाज के प्रति जिम्मेदार और चुनौतियों के प्रति जुझारू तो थे ही, छात्र राजनीति ने उन्हें अनोखी समझ, दूरदर्शिता और परिपक्वता भी दी थी। स्वर्गीय चंद्रशेखर, स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे तमाम नेता इसी कौम का हिस्सा रहे। वर्तमान में, अरुण जेटली भी छात्रा राजनीति और आपातकालीन आंदोलन से ही मुख्य राजनीति में शामिल होते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि छात्र राजनीति ने हमें ऐसे नेता दिये हैं, जिनकी दूरदृष्टि के सुखद परिणाम हमें आज के विकास के रूप में दिखाई दे रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ दो-एक दशकों में छात्र राजनीति एक नया मोड़ लेती दिखाई दे रही और दुर्भाग्यवश ये नया बदलाव बहुत सकारात्मक नहीं दिख रहा। 
देश के राजनैतिक पटल पर देखें तो, संसद में बैठे अशिक्षित नेताओं की करनी और उनके गलत नतीजों का लाख रोना रोने के बावजूद, हमें शिक्षित नेताओं का अभाव ही हाथ लग रहा है। वजह साफ है, इक्के-दुक्के शिक्षितों के अलावा, पढ़े-लिखे युवक राजनीति को कोयले की दलाली ही समझते हैं और इसमें शामिल होने से कतराते हैं। यहां तक कि वे छात्र राजनीति में शामिल होने से भी डरते हैं। अफसोस इस बात का भी है कि आज का परिवेश उनकी इस समझ को ही प्रगाढ़ कर रहा है। कालेजों में पढ़ रहे जो युवा छात्र राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं, उनमें से ज्यादातर सत्ता की चमक और छोटी उम्र में रुतबा व अधिक से अधिक धन कमाने के शाॅर्टकट के रूप में इसे देख रहे हैं। ऐसे में, राजनीति में शामिल शिक्षित लोगों और अशिक्षितों में फर्क करना लगभग असंभव ही है, पार्टियांे की न अपनी कोई विचारधारा है और न ही नेता व्यक्तिगत तौर पर उसूलों पर चलने का सुदृढ़ निर्णय लेते दिखाई देते है। आज की राजनीति सरोकारांे से परे, केवल सत्ता की राजनीति बनकर रह गई है और यह न केवल ऊपरी तौर पर दिखाई देता है बल्कि निचले स्तर पर भी खूब भली-भांति देखा जा सकता है। आज की छात्र राजनीति इसका उदाहरण है। पिछले कुछ समय से छात्र राजनेता जीत के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते दिखाई देते हैं। साम-दाम-दंड-भेद यहां सब कुछ एक साथ देखा जा सकता है। छात्रा नेताओं में परिपक्वता, गंभीरता और समाज के प्रति निष्ठा, ये सब गुजरे जमाने के शब्द से जान पड़ते हैं। कहीं सुना था कि आज का युवा जीवन में रफ्रतार चाहता है, छात्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे छात्र नेता भी इसका शिकार हैं। 
पिछले कुछ समय से देखा जा रहा था कि कालेजों में प्रवेश से लेकर, अन्य मुद्दांे पर अपनी मनमानी करवाना और यदि अपनी न चले तो तोड़पफोड़ व मारपीट करना ही जैसे छात्र राजनीति का दूसरा नाम हो गया था। यहां तक कि बु(िजीवियों का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू में भी छात्रसंघ चुनावों के दौरान होने वाली प्रेजिडेंशियल डिबेट का स्तर लगातार गिरता देखा गया। अब तो छात्रों में डिबेट के दौरान हाथापाई भी आम हो चली है। यूपी में छात्र राजनीति के नाम पर कत्लेआम से भी लोग परहेज नहीं करते। शायद यही वजह रही कि अप्रैल 2006 के विधानसभा चुनावों में जीतने के बाद, मायावती ने राज्य में छात्रसंघांे पर पाबंदी लगाने का पफरमान जारी कर दिया। और उसी दिन उच्चतम न्यायालय ने भी छात्रसंघों के लिए प्रतिकूल टिप्पणी की। जस्टिस अरिजित पसायत का कहना था कि विश्वविद्यालय व कालेजों में पढ़ने वाले छात्र महम पार्टटाइम छात्राऔर पफुलटाइम नेता हो गए हैं।
छात्रसंघों पर पाबंदी का पफैसला भले ही तानाशाही का द्योतक हो, लेकिन छात्र राजनीति का मुद्दा उच्चतम न्यायालय में आने का कम-से-कम एक पफायदा तो जरूर मिला, छात्र राजनीति को नजरअंदाज करने वालों के बीच भी यह मुद्दा चर्चा का विषय बना और हो न हो उसके कुछ अच्छे परिणाम भी सामने आए।
लिंगदोह समिति की सिपफारिश से यह साफ हो गया कि छात्रसंघांे का गठन विश्वविद्यालयों व छात्रों के विकास के लिए आवश्यक और लोकतंत्रा की सेहत के लिए अनिवार्य है। हालांकि समिति की सिफारिश पर बहुत से लोग नाखुश दिखाई दे रहे हैं, लेकिन यदि इन सिफारिशों पर गंभीरता से सोचा जाए तो इनमें कुछ भी गलत नजर नहीं आता। 
कुछ लोगों का मानना है कि लिंगदोह समिति की, छात्र संगठनों व राजनैतिक पार्टियों के गठजोड़ को लेकर की गई नकारात्मक सिफारिश बेमानी है क्यांेकि विचारधारा के निर्वहन के लिए पार्टी का दिशानिर्देश होना जरूरी है लेकिन पार्टियां किस प्रकार अपनी लीक पर चलती हैं यह हमने देख ही लिया है। जो कांग्रेस अपनी सत्ता जमाने के लिए उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ती, वही मौका पड़ने पर, मायावती से गठजोड़ करने को भी तैयार रहती है। कुछ ऐसा ही हाल तथाकथित सोशलिस्ट और कम्यूनिस्टों का भी है। बल्कि उनकी विचारधारा का अहसास तो हमें द्वितीय विश्वयु( के समय से ही है, जब ब्रिटेन और रूस की दोस्ती को देख, सोशलिस्टों ने यहां तक कहना शुरू कर दिया था कि गोरे हमारे दुश्मन नहीं हैं। 
यहां लिंगदोह समिति की रिपोर्ट को एक बार पिफर से ध्यान से देख लेना जरूरी होगा। दरअसल, इस रिपोर्ट में 1981 में विश्वविद्यालय अनुदान केंद्र ;यूजीसीद्ध समिति का जिक्र मिलता है, जिसका मजमून कुछ इस प्रकार है, ‘शिक्षक व छात्रों का एक वर्ग केवल मतदाता ही नहीं हैं, वरन् स्थानीय, राज्यीय व संसद के भावी उम्मीदवार भी हैं। अतः हम इसमें कोई बुराई नहीं देखते कि राजनैतिक पार्टियां हमारे विश्वविद्यालयों के परिसरों में सक्रिय हों। राष्ट्रीय विकास के पहलुओं, योजनाओं व विभिन्न विचारधाराओं के बारे में विमर्श स्वागत योग्य हैं और इस प्रकार की राजनैतिक गतिविधियां विश्वविद्यालयों के विकास की द्योतक हैं। लेकिन, हमें यह कहते हुए बहुत दुख होता है कि परिसरों में हम जिस प्रकार की राजनैतिक गतिविधियां देख रहें हैं, वे अपने स्वरूप में अत्यंत दयनीय दिखाई देती हैं और उनसे राजनीति का नाम खराब होता है।’ 
यदि इस एक सिपफारिश के अलावा, अन्य सिपफारिशों की बात की जाए, तो उनमें भी कोई बुराई नहीं बल्कि समानता व पारदर्शिता का ही अधिक भाव दिखता है। मसलन, चुनाव के खर्च की अधिकतम राशि 5000 रुपये तय की गई है। इसे यदि सकारात्मक रूप से देखा जाए, तो इससे पफायदा यह होगा कि एक मध्यम परिवार से आने वाला युवा, जो राजनीति की समझ और समाज के प्रति सरोकार का भाव रखता है, वह भी छात्र राजनीति में शामिल हो सकेगा। इसी तरह, खर्च का ब्यौरा देने पर तमाम छात्रों के बीच यह संदेश जाएगा कि उन्होंने अपने लिए जिन प्रतिनिधियों का चुनाव किया है, वे उनके प्रति वाकई जिम्मेदार हैं। अंततः लिंगदोह, समिति की जो सिपफारिश छात्रा राजनीति में बढ़ते आपराधीकरण की रोकथाम की बात करती है, उससे किसी को भी विरोध नहीं होना चाहिए क्यांेकि हम सभी यह अच्छी तरह जानते हैं कि आपराधीकरण का रोग किस तरह छात्र राजनीति को खा रहा है और यदि अब भी इसे न रोका गया तो यह जल्द ही नासूर में बदल सकता है।
निष्कर्ष के तौर पर, छात्र राजनीति को देश की राजनीति के झरोखे के रूप में देखा जा सकता है। हम छात्र राजनीति को जो शक्ल देंगे, उसी का व्यापक आकार हमें देश की राजनीति के रूप में दिखाई देगा। आज जब देश की राजनीति में हर तरह की विकृतियां शामिल हो चुकी हैं, तो जरूरी है कि हम निचले स्तर से ऐसे बदलावों की शुरुआत करें, जो ऊपरी स्तर पर स्वतः ही पफैल जाएं। जाहिर है, यह काम छात्र नेताओं की पहल और इस दिशा में उनके सकारात्मक रवैये से ही शुरू होगा क्योंकि देश की राजनीति की असली जड़ें तो वे ही हैं।

You can leave a response, or trackback from your own site.

0 Response to "छात्र आंदोलनों की प्रासांगिकता"

Post a Comment

Powered by Blogger