सत्व के प्रकाशतत्व का विकास शिक्षा का ध्येय

वर्तमान शिक्षण में बालकों के मस्तिष्क में ठूंस-ठूंसकर भरी गई जानकारियों को तीन घंटे में उत्तरपुस्तिका में उगल देना होता है। जितनी अधिक जानकारी विद्यार्थी दे सकता है, उतना ही उसे बु(िमान माना जाता है। श्रीअरविंद की दृष्टि में यह प(ति अयोग्य है। इससे बालकों पर अत्याचार होता है। उसकी प्रवृत्ति के विरू( जाने का दबाव डाला जाता है। हम बालकों के उद्दाम और उत्कट आवेगों पर जड़ नियम लादकर उसके स्वभाविक विकास को रोक देते हैं। इसके परिणाम से उसकी शक्तियां कुंठित हो जाती हैं, उसके कोमल मस्तिष्क पर याद रखने का भारी बोझ पड़ जाता है। बाद में बड़ा होने पर बालकों की स्मरणशक्ति मंद हो जाती है। इस कारण कई बार ऐसा भी होता है कि प्रााथमिक शाला में पहले नम्बर पर आनेवाला बालक आगे जाकर एकदम सामान्य श्रेणी में आ जाता है।
बालकों को जबरदस्ती, मजबूर करके पूरे समय पढ़ने के लिए बैठाया जाता है जिससे उन्हें पढ़ने में रूचि नहीं होती, उत्साह नहीं होता। वे सब रट डालते हैं, इससे उनकी समझने की शक्ति विकसित नहीं होती है। ज्ञान के प्रति उनमें रुचि पैदा नहीं होती है। जिज्ञासा वृत्ति मंद हो जाती है। उनकी पढ़ाई यंत्रावत और जड़ बन जाती है। जिस कारण उनकी चेतना का विकास नहीं होता है।  जाती जानकारियों को नन्हे से मस्तिष्क में संग्रह करने के लिए बालक की बौ(िक मेहनत बढ़ती जाती है। अभी तो उसके स्थूल मस्तिष्क और मन का पूरा विकास भी नहीं हुआ होता है। और उसे कितना अधिक रट-रटकर याद रखना पड़ता है। इससे उसके मन पर भी भारी दबाव पड़ता है। इसलिए पढ़ना उसे अच्छा नहीं लगता। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैंः- ‘तुम्हारे मस्तिष्क में ठूंसी और जीवन भर अनपची रह जाने वाली और त्रासदायी जानकारी का संग्रह शिक्षा नहीं है। जीवन का निर्माण करें, मनुष्य को बलवान बनाएं, उसके चरित्रा का विकास करें, ऐसे पठन की आवश्यकता है।’ वे आगे कहते हैं, ‘शिक्षा का उद्देश्य केवल मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाना ही हो सकता है। मानव के उसके विकास के पथ पर ले जाना ही शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है।’
श्रीअरविन्द भी शिक्षा के ध्येय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं,‘शिक्षा का मुख्य ध्येय विकसित होती आत्मा के अन्दर जो कुछ उत्तम है उसे प्रकट करके, उसका उदात्त उपयोग हो, उसके लिए उसे पूर्ण बनाना है।’ पृथ्वी पर मनुष्य देह धरण करके आने के पीछे आत्मा का ध्येय विकास करना ही होता है। अनेक जन्मों तक विकास करते-करते आत्मा अंत में अपने मूल स्रोत परमात्मा को मिल जाती है। इसलिए विकास ही जीवन का मुख्य हेतु है और यही शिक्षा का भी हेतु है। मनुष्य के अंदर अनेक सुषुप्त शक्तियां रहती हैं। इन शक्तियों को जागृत करना, विकसित करना और मनुष्य को श्रेष्ठ मनुष्य बनाना, यही सच्ची शिक्षा है।
इस शिक्षण में कहीं बाहर से ज्ञान को लादना नहीं है, क्योंकि ज्ञान तो मनुष्य की आत्मा के अंदर ही पड़ा है। शिक्षक को तो केवल उसे जागृत करने का कार्य करना है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘मनुष्य में पूर्व में स्थित पूर्णता का प्रकटीकरण अर्थात् शिक्षा।’ जो ज्ञान मनुष्य के अंदर ही स्थित है तो उसे पिफर शिक्षा द्वारा क्या सिखा सकते हैं? तब पिफर शिक्षण का कार्य क्या? शिक्षण का कार्य है- विद्यार्थी के अन्दर स्थित उदात्त तत्वों के प्रकट होने और विकास के लिए सामग्री उपलब्ध् कराने के लिए योग्य वातावरण तैयार करना। इस संदर्भ में श्री अरविंद कहते हैं, ‘विद्यार्थी के ज्ञान और चिंतन का महल निर्माण करने वाली वस्तुएं अलग ही हैं और वे हैं स्मृति, निर्णय शक्ति, कल्पना, तत्वदृष्टि और तर्कबु(ि। इन सब बु(ि के सर्जकतत्वों को सक्रिय करने के सामग्री उपलब्ध् कराना शिक्षा का मुख्य कार्य है।’ यह सर्जकतत्व सभी बालकों में सम्पूर्ण प्रकट नहीं होते। उसके पीछे कारण है बालकांे की प्रकृत्ति और उन्हें मिला वातावरण। बालकांे में तमस होता है, इससे उनमें आलस, प्रमाद औरा शिथिलता आती है। उनका विकास मंद हो जाता है। उन्हें पढ़ना अच्छा नहीं लगता, विरक्ति होती है, थकाने लगती है। नहीं पढ़ने के अनेक बहाने वे ढूंढ़ लेते हैं। पर यह बस उनकी प्रकृति में स्थित तमोगुण के कारण हैं। उनमें रजोगुण भी होता है। यदि रजस अध्कि प्रमाण मंे हो तो उनमें ईष्र्या, आवेग, लोभ, मोह, क्रोध् आदि वृत्तियां अध्कि होती हैं। इन वृत्तियों के कारण उनके अन्दर का ज्ञान प्रकट नहीं होता। यदि बालक की प्रकृति में सत्वगुण अध्कि हो तो उनमें स्थित ज्ञान अपने आप जागृत होता है। सत्वगुण स्वयं ही प्रकाश बनकर ज्ञान चक्षुओं को खोल देता है। ज्ञान चक्षु खुलने से बालक को सब कुछ सहज रूप से समझ में आने लगता हैै।
हमारे )षि-मुनियों को इन तीन गुणवाली मानव प्रकृति का गहरा ज्ञान था। अतः उन्होंने शिक्षा का मुख्य कार्य तमस् का विसर्जन, रजस का नियंत्राण और सत्य का उद्घाटन माना था। गुरु शिष्यों को इस प्रकार शिक्षा देते थे कि यह प्रक्रिया शिष्य में अपने-आप होने लगती थी। सत्वगुण का उदय होते ही शिष्य अपने अन्दर से ही प्रकाश मिलने से ज्ञान प्राप्त कर सकते थे।
श्रीअरविन्द कहते हैं, ‘जब मनुष्य में सत्व के प्रकाशतत्व का विकास उच्चकोटि में पहंुचता है, तब उसे सामान्य रूप से या अध्कितर बाहर के साध्नों की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसा व्यक्ति किसी शिक्षक की, पाठ्यपुस्तक, व्याकरण या शब्दकोष की सहायता लिये बगैर विषय को पूरी तरह या अध्किांश रूप से अपने अंदर ही जान सकता है।’ विद्यार्थियों को इस स्तर पर लाने का ध्येय शिक्षा का है।

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1 Response to "सत्व के प्रकाशतत्व का विकास शिक्षा का ध्येय"

  1. Unknown says:

    शानदार प्रयास बधाई और शुभकामनाएँ।

    -लेखक (डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश') : समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान- (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। जिसमें 05 अक्टूबर, 2010 तक, 4542 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता राजस्थान के सभी जिलों एवं दिल्ली सहित देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे), मो. नं. 098285-02666.
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